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Thursday, September 15, 2011

ਲੇਖਕ ਗੋਪੀ ਲੰਗੇਰੀ

ਕਦੀ ਤਾਂ ਇਸ਼ਕ ਤਖਤ ਪਹਿਣਾਉਵੇ , ਕਦੀ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕੰਗਾਲ ਇਸ਼ਕ .


ਕਦੀ ਤਾਂ ਜਿੰਦਗੀ ਬਣਕੇ ਮਿਲਦਾ , ਕਦੀ ਮੌਤ ਦਾ ਬਣੇ ਸਮਾਨ ਇਸ਼ਕ .

ਕਦੀ ਤਾਂ ਇਸ਼ਕ ਰੱਬ ਏ ਬਣਦਾ , ਕਦੀ ਬਣੇ ਹੁਸਨ ਦਾ ਜਾਲ ਇਸ਼ਕ ,

ਕਦੀ ਤਾਂ ਮਾਣ - ਸ਼ਾਨ ਏ ਦਿੰਦਾ, ਕਦੀ ਕਰਦਾ ਏ ਬਦਨਾਮ ਇਸ਼ਕ ,,,

ਸੱਚੇ ਦਿਲ ਨਾਲ ਸੀ ਕੀਤਾ ਗੋਪੀ ਲੰਗੇਰੀ ਵਾਲੇ ਨੇ ,,,,,

ਨਹਿਓਂ ਕੀਤਾ ਸੀ ਹੁਸਨ ਦੇ ਨਾਲ ਇਸ਼ਕ , ........ ਨਹਿਓਂ ਕੀਤਾ ਸੀ ਪੱਥਰ ਦਿਲ ਨਾਲ ਇਸ਼ਕ

--------- ----- ਲੇਖਕ ਗੋਪੀ ਲੰਗੇਰੀ ------------ -----------

Saturday, April 2, 2011

menon yaadan terian

Sawan ki bheegi
raaton mein , jab
phool khilaain
barsaton mein, jab
chere sakkian
baataon mein ..
menon yaadan
terian ondian
nay...menon
yaadan terian
ondian nay ...
menon yaadan ...
Sawan ki bheegi
raaton mein , jab
phool khilaain
barsaton mein, jab
chere sakkian
baataon mein ..
menon yaadan
terian ondian
nay...menon
yaadan terian
ondian nay ...
menon yaadan ...
Dil ko pakar kay
reh jati hoon
pochna kaise
sharmati hoon ..
sari baatain sun
laiti hoon .. addhie
baatain keh jati
hoon ... khushboo
nahi milti kalion
mein.. koi rang nahi
ranglarrion mein ...
gaaon ki sohni
galion mein ..
menon yaadan
terian ondian ne ...
menon yaadan
terian ondian ne ..
menon yaadan ...
Apna duhkra keh
nahi sakti aur
judaie seh nahi
sakti ... kache
gahre par beh nahi
sakti.. beth kinare
reh nahi
sakti ..main pahen
kay payal paon
mein tera rasta
dekhon gaaon
mein .. pipal ki
thandi chaon
mein .. menon
yaadan terian
ondian ne .. menon
yaadan terian
ondian ne .. menon
yaadan ... Kab tak
tum pardes raho
gay .. aao gay na
khaat likho gay ..
main ghooth
ghooth kar jaan
dai don gi .. phir
tum kis ko jaan
kaho gay .. dhondo
gay jungle belay
mein har basti
mein har melay
mein .. gaao gay
yehi akele mein ..
menon yaadan
terian ondian ne ..
menon yaadan
terian ondian ne ..
menon yaadan
sawan ki bheegi
raaton mein jab
phool khilay
barsaton mein jab
chere sakian
baataon mein ..
menon yaadan
terian ondian ne ..
menon yaadan
terian ne menon
yaadan terian
ondian ne .

Wednesday, March 23, 2011

आत्मा का परमात्मा से अलौकिक संबंध

समस्त जगत् में जितने भी प्राणी हैं सबका एक दूसरे से कोई संबंध है। बिना संबंध के हम इस जगत् में खुशहाल जीवन नहीं व्यतीत कर सकते। संबंधों के तार मनुष्य को शक्ति प्रदान करते हैं। लौकिक-अलौकिक वैभव, सुख, शांति, गुणों और शक्तियों का आदान-प्रदान भी सहज होता है। आज तक हम पुराणों, धर्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए करते हैं कि वे हमारे पूर्वजों ने रचे हैं। उनके द्वारा हम सबके कल्याणार्थ लिखे ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। उनसे हमारे संबंध दिव्य और अलौकिक हैं इसलिए हम उनकी श्रेष्ठ क्रियाकलापों का अनुसरण करते हैं। उनको जीवन में उतारने की कोशिश करते है। लौकिक और अलौकिक का भी एक दूसरे से गहरा संबंध है। आत्मा अलौकिक है और शरीर लौकिक है। समस्त जगत लौकिक और अलौकिक के गहरे संबंध से जुडा है। इसके आधार पर यह भूमंडल चल रहा है। मनुष्यों का देवताओं से भी संबंध है क्योंकि वे दैवी गुण वाले हैं, हमारे आराध्य हैं। उनसे हमें शक्ति, वैभव और शांति की प्राप्ति होती है। इसी तरह से आत्मा का परमात्मा से अलौकिक संबंध है। संसार में परमपिता परमात्मा ही एक ऐसा है जो मनुष्य के साथ हर पल संबंध निभाने के लिए तैयार रहता है। परमात्मा संसार का रचयिता है और निराकार है, उसका भौतिक शरीर नहीं है। त्वमेवमाता चपिता त्वमेव,त्वमेवबंधुश्चसखा त्वमेव।त्वमेवविद्या द्रविणंत्वमेव,त्वमेवसर्व मम देवदेव।।परमात्मा के लिए यह क्यों कहा गया है, इसके बारे में संसार के प्रत्येक प्राणी को विचार करना चाहिए। यह जाहिर है कि संसार में जो भी रिश्ते हैं वे सब विनाशी हैं और भौतिक संबंध होने के कारण मनुष्य का लगाव भौतिकता के स्तर से ही होता है। इसलिए जब यह पांच तत्वों से बना शरीर अपने समयाकालके अनुसार अपने वास्तविक रूप में परिवर्तित होता है तो मनुष्य को बिछडने का दु:ख होता है क्योंकि आत्मा इस पंचतत्व निर्मित भौतिक शरीर को छोड दूसरे शरीर में धारण कर लेती है। परमात्मा का कोई शरीर नहीं है। परमात्मा निर्गुण और निराकार है। इसके बावजूद वह विभिन्न प्रकार के कर्म करता है। परमात्मा को जिस रूप में जो याद करता है वह उसको उसी रूप में उसकी मनोकामना पूर्ण करता है। संसार में सभी संबंधों से सर्वोच्च परमात्मा से संबंध है। आप मायाजाल के संबंधों से ऊपर उठकर परमात्मा से संबंधों का संपूर्ण सुख लीजिए। आपको सर्वशक्तियोंऔर सर्व सुखोंका अधिकारी बनना है तो परमात्मा से पिता-पुत्र के संबंध का अनुभव कीजिए वह आपका सभी बोझ अपने सिर पर ले लेगा और आपको माता-पिता का सच्चा एवं संपूर्ण सुख प्रदान करेगा। इसलिए परमात्मा के लिए सभी जनमानस के मुखारविंदसे यही निकलता है कि तुम मात-पिता हम बालक तेरे, तेरे कृपा से सुख घनेरे।भौतिक शरीर में आने से पहले और भौतिक शरीर त्यागने के बाद हमारा माता-पिता परमात्मा ही होता है। जब हम भौतिक शरीर में आते हैं तो उसको भूलने के कारण हमें अनेक प्रकार के दु:ख और कठिनाइयों का सामना करना पडता है। आप अपने तीसरे नेत्र को खोलिए और परमात्मा के साथ अपना अलौकिक संबंध जोडिए।यही आपकी नैया के खेवनहार और पालनहारहैं। इस संसार सागर की लहरों में कोई स्थूल और भौतिक सहारा आपका साथ नहीं देगा। इसलिए भौतिक वस्तुओं और सुखोंसे दिली संबंध रख अपने को उलझाए रखना बेमानी होगी। फिर जब संसार के प्राकृतिक और दैवी हालात बदलेंगे तो दु:ख के सिवा आपको कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि वे सब विनाशी है जिन्हें आप इन स्थूल आंखों से देख रहे हैं। इस भौतिक जगत में रहते भी अंदर की चेतन सत्ता को पहचान सर्व सुखोंएवं सर्व गुणों के सागर परमपिता परमात्मा से अपने सर्व संबंध जोडिएऔर जब भी आपको किसी भी संबंध की आवश्यकता महसूस हो उसे निभाने के लिए कहिए वह संबंधों को सुखोंऔर रसों से भरपूर कर देगा। वह पिताओं का भी पिता, पतियोंका भी पति और देवों का भी देव है। इसलिए उसे अपना बनाइये। जब संसार सागर में दु:ख की लहरें आएंगी तो भी आप अतिंद्रियसुखोंके झूलों में होंगे। दु:ख और अशांति से आप कोसों दूर होंगे। आपको देखकर दूसरे भी इस अतिंद्रियसुख का अनुभव करेंगे। परमकल्याणकारीपरमपिता परमात्मा शिव भोलेनाथसे अपने सर्व संबंधों का रस लीजिए फिर आप इस दु:ख की दुनिया में भी सुख का अनुभव करेंगे। यही परमात्मा का संदेश है।




ब्रह्माकुमारकोमल







गीता में परमात्मा प्रा‍प्ति के संदेश

मनुष्य को ऐसे चिंतन और ऐसे विचार से अपने को दूर रखना चाहिए, जिससे उसकी अपनी आस्था में भटकाव हो जाए। मनुष्य इस दुनिया में उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आया है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रह जाती।




अव्यय परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के भीतर कौन-कौन से गुण होने चाहिए उसी को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता संदेश के माध्यम से मानव मात्र के लिए दे दिया है। उस अव्यय पद को ज्ञानी व्यक्ति प्राप्त करता है। जो मूढ़ व्यक्ति होता है, वह संसार में भटक जाता है। और उसी भटके हुए मार्ग को सत्य मान लेता है।



भटकन की यही तो कठिनाई है। वस्तुतः आदमी पहले भटकन में, फिर अटकन में, उसके बाद लटकन में, फिर फटकन- इन चार वस्तुओं में फँस जाता है। आप विचार कर देखें कि कोई व्यक्ति चिंतन के द्वारा, किसी को प्रभावित करने का प्रयत्न करने लगे तो अपने ग्रंथों के प्रति भी कई बार श्रद्धा का अभाव हो जाता है।



भगवान ने गीता में कहा कि बुद्धिमान मनुष्य को कर्मों में आसक्ति रखने वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात्‌ कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। श्रद्धालुओं में बुद्धि-भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए- लेकिन समाज में बहुत बार ऐसे बुद्धिमान लोग भी आ जाते हैं, जो परंपरा का निरंतर विरोध करते हैं। सनातन से मान्य परंपराओं के ऊपर, अपनी बुद्धि से प्रहार करते हैं। उनमें कुछ श्रेष्ठ हो, उसे अवश्य लेना चाहिए, किंतु अपनी आस्था में कहीं भटकाव हो जाए- ऐसे चिंतन, ऐसे स्वाध्याय, ऐसे विचार से अपने को दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।





NDमनुष्य संसार में आया- अव्यय पद अर्थात्‌ उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए-जिसे प्राप्त कर लेने के बाद, फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती। जीवन का सबसे बड़ा लाभ यही है। इसे प्राप्त कर मनुष्य, जीवन के बड़े से बड़े संकट में भी विचलित नहीं होता।



हम संसार में रहते हैं - बड़े व्यवस्थित, लेकिन छोटी-मोटी घटनाएँ विचलित कर देती हैं। भगवतगीता का संदेश- मानव के जीवन में से, विचलन का अभाव कराने का संदेश है। वह अविचल भाव से, जिसे गीता ने स्थितप्रज्ञ कहा है- संसार की अनुकूलता में, प्रतिकूलता में, प्रिय-अप्रिय में, संयोग में, वियोग में, मान-अपमान में- अपने जीवन को चलाने का प्रयत्न करें, यह श्रीमदभगवतगीता का दर्शन है। उस अव्यय पद को प्राप्त करने के लिए, मनुष्य को कुछ छोड़ना पड़ेगा। बिना कुछ छोड़े प्राप्त करना मुश्किल है।



किसी व्यक्ति के मन में इच्छा हो कि मैं छत पर, अगासी पर जाऊँ, तो उसे किसी न किसी सीढ़ी का प्रयोग करना पड़ता है। जब वह सोपानों पर चलता है, अगासी उसने देखी नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती लेकिन सीढ़ियाँ दिख रही हैं।



किसी व्यक्ति ने कहा-'छत पर वैदूर्य मणि है। बहुत चमक रही है। वहाँ पहुँचने के बाद बहुत कुछ प्राप्त होगा, जो कभी देखा नहीं होगा, सोचा नहीं होगा। लेकिन उस उच्च शिखर पर ले जाने वाली सीढ़ियों में से प्रथम सीढ़ी चाँदी से मढ़ी हुई थी। जब वह चढ़ने लगा, तो विचार करने लगा कि ऊपर किसने देखा है, यहाँ चाँदी तो लगी है, उखाड़कर ले जा सकते हैं। वह कुछ देर तक बैठा रहा कि यहाँ कोई न हो, तो इसमें से ले जा सकते हैं।



दूसरे दिन, दूसरा यात्री आया। वह दूसरे सोपान पर चढ़ा, तो देखा कि स्वर्ण लगा हुआ है। उस पर उसका आकर्षण जग गया। प्रथम यात्री पहले, थोड़े रजत के आकर्षण में आकर्षित होकर लौट गया। दर्शन करना था वैदूर्य मणि का पहले भटका, फिर अटका, इसके बाद लग गया एक झटका और घूमता ही रहा भटकाव में। कुछ हाथ लगा नहीं। जीवन भ्रम में ही चला गया।



यही तो मनुष्य की कठिनाई है कि जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ भ्रम हो जाता है और जहाँ भ्रम होना चाहिए, वहाँ श्रद्धा हो जाती है। जगत में निवास करते-करते जगत के मिथ्यात्व का बोध होना चाहिए। क्योंकि अनेक ऐसे लोग हो गए, जिन्हें जगत के पदार्थों को छोड़ते देखा है। इस जगत में से उनका प्रस्थान भी देखा है।

परमात्मा को जाने वही है शिक्षित कहलाने योग्य

मैं जानौं पढ़ना भला, पढ़ने ते भल लोग


रामनाम सों प्रीति कर, भावे निन्दो लोग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं पहले पढ़ना लिखना अच्छा समझता था पर अब तो ऐसा लगता है कि पढ़ने लिखने से तो योग साधना, ध्यान और भक्ति ही करना अच्छा है। रामनाम से प्रेम करना ही ठीक है चाहे लोग उसकी कितनी भी निंदा करें।

नहिं कागद नहिं लेखनी, निहअच्छर है सोय

बांचहि पुस्तक छोडि़के, पंडित कहिये सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि न तो उसके पास कागज है न कलम है और वह एकदम निरक्षर है पर अगर उसने भगवान से प्रेम कर लिया तो वह ज्ञानी हो गया। उसने पुस्तक पढ़ना छोड़ दिया हो पर अगर वह ध्यान करता है तो उसे ही विद्वान मान लेना चाहिए।



पढ़ी गुनी पाठक भये, कीर्ति भई संसार

वस्तु की तो समुझ नहिं, ज्यूं खर चंदन भार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ लिखकर शिक्षित हो गये संसार में कीर्ति फैल गयी परंतु जब तक परमात्मा की समझ नहीं आयी तब सब व्यर्थ हैं। उसे तो यू समझना चाहिए जैसे गधे के ऊपर चंदन का तिलक लगा हो।





परमात्मा के करोड़ों नाम

कोटि नाम संसार में तातें मुक्ति न होई



आदि नाम जो गुप्त जपे बुझे बिरला कोई





कबीर जी कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम हैं परन्तु

उनको जपने से मुक्ति नहीं हो सकती
जानना है तो उस नाम को

जानो जो आदि काल से चला आ रहा है, जो अत्यंत गोपनीय है

एवं मनुष्य के अन्तर में चल रहा है
वह नाम कण-कण में विद्यमान है


परन्तु उसी नाम का अर्थात उस ज्ञान का ही मनुष्य को बोध नहीं


आज मनुष्य ने स्वयं द्वारा निर्मित भक्ति करने के अनेकों तथा मनमाने

मार्ग बना लिए हैं
लेकिन धार्मिक ग्रंथों में संत महापुरषों, ऋषि एवं गुरुओं

द्वारा दिए गए सन्देश से यह रहस्य स्पष्ट होता है कि वह ज्ञान कभी भी बदलता नहीं


Perfect Master

घर महि घरु देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु ॥


(SGGS,page 1291)

He is the Perfect Master who is capable of revealing the sacred of God within the abode of heart.



Nowadays,spiritual seekers are rushing towards the hermitages of one or the other Guru.But they do not know what they should enquire about before taking their shelter.If you ask such desciples whether their Guru has revealed Divine Light to them,they will be suprised and perplexed - "How is it possible? How can one see Divine Light just by the grace of the Guru ? For this,we need to toil hard and do unceasing efforts for years."



But,this argument of their is not strong.It would be as if a blind person says that with his ceaseless efforts,one day,he would be able to see things around him.What he really needs is the treatment by an experienced surgeon.Only an expert surgeon can operate on his damaged eyes and impart sight to him.There and then,insantly,the patient is able to see things around him,not years after the operation.Similarly,our religious texts inform that when the Guru places his holy palm on the seeker's head,He imparts to him the Divine Eye and makes him see the vision of God instantly - yes,yes,there and then - at the time of initiation ! Without any effort by the seekers! Moreover,it is not temporary faculty that the Perfect Master grants! It is the Everlasting One! The Indestructible One! The permanent cure of ignorance!

उन्नति का मार्ग

एक दिन एक किसान का गधा कुएँ में गिर गया ।वह गधा घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं। अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि गधा काफी बूढा हो चूका था,अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था;और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है ,वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा । और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एस सीढी ऊपर चढ़ आता । जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएँ के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया।ध्यान रखो ,तुम्हारे जीवन में भी तुम पर बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जायेगी ,बहुत तरह कि गंदगी तुम पर गिरेगी। जैसे कि ,तुम्हे आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही तुम्हारी आलोचना करेगा ,कोई तुम्हारी सफलता से ईर्ष्या के कारण तुम्हे बेकार में ही भला बुरा कहेगा । कोई तुमसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो तुम्हारे आदर्शों के विरुद्ध होंगे। ऐसे में तुम्हे हतोत्साहित होकर कुएँ में ही नहीं पड़ेरहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर,उसे सीढ़ी बनाकर,बिना अपने आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है।अतः याद रखो !जीवन में सदा आगे बढ़ने के लिए१)नकारात्मक विचारों को उनके विपरीत सकारात्मक विचारों से विस्थापित करते रहो।२)आलोचनाओं से विचलित न हो बल्कि उन्हें उपयोग में लाकर अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो।


Monday, March 14, 2011

त्रिगुण रूप श्री दत्तात्रेय

श्री दत्तात्रेय या दत्त यानी ब्रह्मा-विष्णु-महेश का त्रिगुण रूप, जो राम-कृष्ण की तरह चिरंतन, चिरंजीव है, जो केवल दुष्टों का ही नाश नहीं करते, वरन अज्ञानरूपी अंधकार को भी दूर करते हैं, जिन्हें परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु का अवतार माना गया है।




दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं। इसीलिए उन्हें 'श्री गुरुदेवदत्त' भी पुकारते हैं, जिनकी सेवा विभिन्न मार्गों से दत्त भक्तों द्वारा की जाती है, जिसमें गुरुचरित्र का पाठ भी शामिल है, जो मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयंती तक पढ़ा जाता है।



इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। 'गुरुचरित्र' वेदतुल्य माना गया है। इसमें श्री पाद, श्री वल्लभ और श्री नरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है। इस ग्रंथ का वाचन चार तरह से किया जाता है। कुछ लोग प्रतिदिन निश्चित 51 या 100 पंक्तियाँ, तो कुछ केवल 5 पंक्तियाँ ही पढ़ते हैं।



कुछ लोग साल में केवल एक बार ही इसे एक दिन में या तीन दिन में पढ़ते हैं जबकि अधिकांश लोग दत्त जयंती पर मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14 पर पढ़कर पूरा करते हैं। अधिकांश दत्त मंदिरों और दत्तभक्तों के यहाँ 'गुरुचरित्र' का श्रद्धा-भक्ति के साथ पाठ और इसी के साथ दत्त महामंत्र 'श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा' का सामूहिक जप भी सुनाई देता है।









त्रिदेवों के शक्ति-पुंज हैं दत्तात्रेय

भगवान के प्रत्येक अवतार का एक विशिष्ट प्रयोजन होता है। श्रीदत्तात्रेयके अवतार में हमें असाधारण वैशिष्ट्य का दर्शन होता है। वे योगियों के परम ध्येय होने के कारण सर्वत्र गुरुदेव कहे जाते हैं। भगवान दत्तात्रेयका असाधारण कार्य है- अखण्ड रूप से ज्ञानदानकरते रहना। इस प्रकार ये गुरु के रूप में अपने भक्तों को अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देकर सांसारिक दुख से मुक्त करके उनकी अविद्या की निवृत्ति करते हैं। ये भक्त के हृदयाकाश में प्रकाशित होकर उसके अज्ञान-रूपी अंधकार को नष्ट कर देते हैं। स्वत:सिद्ध प्रकाश से अपने स्वरूप में विराजमान रहने से ये देव कहलाते हैं। सद्गुरुदेवदत्तात्रेयअवतार लेने से आज तक प्राणियों पर अनवरत उपकार एवं उनका उद्धार करते चले आ रहे हैं। उनके अवतार का प्रयोजन सृष्टि के अन्त तक विद्यमान रहेगा। मनुष्य का सबसे बडा शत्रु उसका अज्ञान ही है।




भगवान दत्तात्रेयके अवतार-चरित्र का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका आविर्भाव सृष्टि के प्रारंभिक सत्र में ही हो गया था। ब्रह्माजीके मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्रके प्रवक्ता कपिलदेव की बहिन सती अनुसूयाइनकी माता थीं। भगवान दत्तात्रेयका प्रादुर्भाव महर्षि अत्रि के चरम तप का पुण्यफलतथा सती अनुसूयाके परम पतिव्रता होने का सुफल है। प्राचीन ग्रंथों में ऐसी कथा पढने को मिलती है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश जब परमसतीअनसूयाकी अत्यन्त कठोर परीक्षा लेने उनके आश्रम में पहुँचे तो माता अनुसूयाने उन्हें अपने सतीत्व के तेज से शिशु बना दिया। इसी कारण दत्तात्रेयको त्रिदेवोंकी समस्त शक्तियों से सम्पन्न माना जाता है।



श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूयाके यहां त्रिदेवोंके अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है। इस पुराण के मत से ब्रह्माजीके अंश से चन्द्रमा, विष्णुजीके अंश से योगवेत्तादत्तात्रेयऔर महादेवजीके अंश से दुर्वासाऋषि अनुसूयामाता के गर्भ से उत्पन्न हुए। लेकिन वर्तमान युग में ब्रह्मा-विष्णु-महेशात्मक त्रिमुखीदत्तात्रेयकी उपासना ही प्रचलित है। इनके तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप ही सब जगह पूजा जा रहा है। दत्तमूर्तिके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठों, आश्रमों और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के श्रीविग्रहोंका दर्शन होता है।



देवर्षिनारद नारदपुराणमें त्रिदेवात्मकभगवान दत्तात्रेयकी स्तुति में कहते हैं-



जगदुत्पत्तिकत्र्रेचस्थिति-संहारहेतवे।

भवपाश-विमुक्तायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥



संसार के बंधन से सर्वथा मुक्त तथा संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के मूल कारण-स्वरूप भगवान दत्तात्रेयको मेरा नमस्कार है।



योगियों का ऐसा मानना है कि भगवान दत्तात्रेयप्रात:काल ब्रह्माजीके स्वरूप में, मध्याह्न के समय विष्णुजीके स्वरूप में तथा सायंकाल शंकरजीके स्वरूप में दर्शन देते हैं। तभी तो शास्त्रों में इनकी प्रशंसा में कहा गया है-



आदौ ब्रह्मा मध्येविष्णुरन्तेदेव: सदाशिव:।

मूर्तित्रय-स्वरूपायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥



दिन के प्रारंभ में ब्रह्मा-रूप, मध्य में विष्णु-रूप और अन्त में सदाशिवरूप धारण करने वाले त्रिमूर्ति-स्वरूप भगवान दत्तात्रेयको नमस्कार है।



तन्त्रशास्त्रके मूल ग्रन्थ रुद्रयामल के हिमवत् खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद के माध्यम से श्रीदत्तात्रेयके वज्रकवचका वर्णन उपलब्ध होता है। इसका पाठ करने से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं तथा सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस कवच का अनुष्ठान कभी भी निष्फल नहीं होता। इस कवच से यह रहस्योद्घाटनभी होता है कि भगवान दत्तात्रेयस्मर्तृगामीहैं। यह अपने भक्त के स्मरण करने पर तत्काल उसकी सहायता करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये नित्य प्रात:काशी में गंगाजीमें स्नान करते हैं। इसी कारण काशी के मणिकर्णिकाघाट की दत्तपादुकाइनके भक्तों के लिये पूजनीय स्थान है। वे पूर्ण जीवन्मुक्त हैं। इनकी आराधना से सब पापों का नाश हो जाता है। ये भोग और मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं।



प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेयने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इन्होंने परशुरामजीको श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था। त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्रकार्तिकेय को दत्तात्रेयजीने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनिको अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया। कार्तवीर्यार्जुनको तन्त्रविद्याएवं नार्गार्जुनको रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेयने ही बताया था। परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेयआज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है।



त्रिगुण रूप श्री दत्तात्रेय

श्री दत्तात्रेय या दत्त यानी ब्रह्मा-विष्णु-महेश का त्रिगुण रूप, जो राम-कृष्ण की तरह चिरंतन, चिरंजीव है, जो केवल दुष्टों का ही नाश नहीं करते, वरन अज्ञानरूपी अंधकार को भी दूर करते हैं, जिन्हें परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु का अवतार माना गया है।




दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं। इसीलिए उन्हें 'श्री गुरुदेवदत्त' भी पुकारते हैं, जिनकी सेवा विभिन्न मार्गों से दत्त भक्तों द्वारा की जाती है, जिसमें गुरुचरित्र का पाठ भी शामिल है, जो मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयंती तक पढ़ा जाता है।



इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। 'गुरुचरित्र' वेदतुल्य माना गया है। इसमें श्री पाद, श्री वल्लभ और श्री नरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है। इस ग्रंथ का वाचन चार तरह से किया जाता है। कुछ लोग प्रतिदिन निश्चित 51 या 100 पंक्तियाँ, तो कुछ केवल 5 पंक्तियाँ ही पढ़ते हैं।



कुछ लोग साल में केवल एक बार ही इसे एक दिन में या तीन दिन में पढ़ते हैं जबकि अधिकांश लोग दत्त जयंती पर मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14 पर पढ़कर पूरा करते हैं। अधिकांश दत्त मंदिरों और दत्तभक्तों के यहाँ 'गुरुचरित्र' का श्रद्धा-भक्ति के साथ पाठ और इसी के साथ दत्त महामंत्र 'श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा' का सामूहिक जप भी सुनाई देता है।







साईं बाबा

एक सुनसान रास्ते पर


साईं बाबा चले जा रहे है

मै उनकी भक्त उनके पीछे चल रही हूँ

साईं बाबा तो आगे निकल गए

और मै पीछे ही रह गयी

फिर भी कोशिश कर रही हूँ

साईं बाबा बहुत दूर चले गए

और मै थक गयी

मेने आवाज़ दी

साईनाथ साईनाथ

बस मै थक गयी

साईं बाबा तो अदृश्य हो गए

अर्थात

साईनाथ को पाना आसान नहीं

उनके पीछे चलना आसान नहीं

उनकी राह तो बहूत लम्बी है

यह सच की राह है

उनकी भक्ति में ही शक्ति है

अरे मेरे भक्त

निकल पड मुसाफिर बन कर

उस राह पर

कही न कही कभी न कभी

किसी न किसी मोड पर

बाबा तेरा इंतज़ार कर रहे है

थाम लेगे तेरा हाथ

ले जाये गे तुझे उस पार

जहा प्यार का स्त्रोत बहता है

जहा मन शांत रहता है

जहा इन्द्रियों का कोई बस नहीं

लेकिन साईं पर विश्वास करना जरूरी है

उनका सिमरन करना जरूरी है

उनेह महसूस करना जरूरी है

रास्ता अपने आप ही बन जाएगा

यही है सची राह



Logged



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sabke dil me baste hi ushe sai sai kehte hai

jai sainath

मनुष्य को कर्मों का कर्ज चुकाना होगा

भगवान ने हमारे जीवन को पवित्र बनाने के लिए समय-समय पर जो उपदेश दिए हैं, वे शास्त्रों के रूप में हमारे सामने हैं। हमें यह जो मनुष्य भव मिला है, यदि कर्मों का कर्ज चुका दिया तो सीधे मोक्ष प्राप्त हो सकता है। मनुष्य को अपने कर्मों का भुगतान स्वयं करना पड़ता है।




उपाध्याय प्रवर मूलमुनिजी ने समाजवादी इंदिरानगर स्थित जैन स्थानक पर ये प्रेरणास्पद उद्गार महती धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि कई भवों के बाद मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। हम मनुष्य भव को सद्कार्यों में लगाकर जीवन का कल्याण कर सकते हैं।



ऋषभमुनिजी ने कहा कि भगवान के शरीर में तीर्थंकर का शरीर सबसे श्रेष्ठ बना है।



तीर्थंकरों के शरीर में सुगंध आती है जबकि भगवान के पास जाते ही समभाव आ जाता है। भगवान के 34 अतिशय का प्रभाव रहता है। भगवान का शरीर के प्रति राग नहीं रहता। केवलज्ञान ही पूर्ण ज्ञान रहता है। आत्मा ही गुरु है। आत्मा ही देव है।







श्री हनुमान जी की आरती

श्री हनुमान जी की आरती


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आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥ आरती……



जाके बल से गिरिवर काँपै। रोग-दोष जाके निकट न झाँपै ॥1॥



अंजनी पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई ॥2॥



दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए ॥3॥



लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई ॥4॥



लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सँवारे ॥5॥



लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि सजीवन प्रान उबारे ॥6॥



पैठि पाताल तोरि जम-कारे। अहिरावन की भुजा उखारे ॥7॥



बाएं भुजा असुर दल मारे। दहिने भुजा संतजन तारे ॥8॥



सुर नर मुनि आरती उतारें। जै जै जै हनुमान उचारें ॥9॥



कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई ॥10॥



जो हनुमानजी की आरति गावै। बसि बैकुण्ठ परम पद पवै ॥11॥



हनुमान जी कौन हैं, कहाँ रहते हैं

हर मंगलवार और शनिवार को हिंदू जन हनुमान जी की पूजा करते हैं। ये हनुमान जी कौन हैं, कहाँ रहते हैं? हमारे शास्त्रों में जो वर्णन मिलता है उससे ऐसी छवि बनती है कि हनुमान एक ऐसे महावानर थे जिन्होंने रामायण काल में राम के साथ उनके महान कार्यों में सहयोग दिया और उनकी निष्काम भाव से सेवा की। बचपन से हम रामलीलाएँ देखते आ रहे हैं और हमने हनुमान को एक अवतार मान लिया जो कि आज केवल मंदिरों में, तीर्थस्थलों में, मूर्ति के रूप में ही सुशोभित व प्रासंगिक हैं।




अंधविश्वास व धार्मिक आस्था के बीच अत्यंत पतली रेखा होती है। राम चरित मानस में तुलसीदास ने जनसाधारण को समझाने के उद्देश्य से ही हनुमान का एक व्यक्ति के रूप में वर्णन किया है और उन्हें अपने गुरु का दर्जा दिया है।



हनु का अर्थ होता है ग्रीवा, चेहरे के नीचे वाला भाग अर्थात ठोड़ी, मान का अर्थ होता है गरिमा, बड़ाई, सम्मान। इस प्रकार हनुमान का मतलब ऐसा व्यक्ति जिसने अपने मान-सम्मान को अपनी ठोड़ी के नीचे रखा है अर्थात जीत लिया है। जिसने अपने मान-सम्मान को जीत लिया है, उसके प्रभाव से जो मुक्त हो चुका है, वही हनुमान हो सकता है। हनुमान का एक नाम बालाजी है, जिसका तात्पर्य है बालक। हमारे ग्रंथों में हनुमान जी को हमेशा बालक ही दिखलाया गया है। बालक के समान निष्कलुष हृदय वाला व्यक्ति ही सम्मान पाने की लालसा से मुक्त रह सकता है और सही अर्थों में ब्रह्माचर्य का पालन कर सकता है।



पौराणिक कथाओं के अनुसार भी हनुमान जी ने कभी अपनी शक्ति व सामर्थ्य का गर्व नहीं किया। राम दरबार के चित्र में उन्होंने सबसे नीचे भूमि पर, सेवक वाली जगह पर ही हाथ जोड़े बैठे दिखाया जाता है।



ऐसे महान चरित्र को वानर के रूप में क्यों चित्रित किया गया? ऐसा प्रश्न आपके मन में भी जरूर उठता होगा। कहाँ ऐसा महान व्यक्तित्व और कहाँ वानर रूप, जो एक निकृष्ट व उद्दण्ड जानवर माना जाता है। वास्तव में वानर प्रतीक है मनुष्य के अविवेकी व चंचल मन का। हमारा मन वानर के समान ही कभी भी कहीं भी टिक कर नहीं बैठ सकता, अत्यंत ही चलायमान है। और मन का नियंत्रण अत्यंत ही दुष्कर कार्य है। हनुमान पवनपुत्र हैं अर्थात पवन से भी अधिक तेज गति से चलने वाले इस मन के वे पुत्र हैं। अब बताइए, एक तो वानर की उपमा व दूसरी पवन की- दोनों ही अत्यंत चंचल। उनको वानराधीश कहने का तात्पर्य यही है कि वे मन रूपी वानर के अधिपति हैं, स्वामी हैं। उनका अपनी चंचल इंद्रियों पर नियंत्रण है। केवल मन का स्वामी ही राम रूपी ईश्वर का सवोर्त्तम भक्त हो सकता है और धर्म के कार्यों में निष्काम भाव से भाग ले सकता है।



यहाँ राम का तात्पर्य है उस रमण करने वाले तत्व से जो कि हर जगह समान रूप से व्याप्त है। दशरथ नंदन राम तो उसे व्यक्त करने के प्रतीक मात्र हैं। याद रखें कि निष्कामता सभी महान गुणों की जननी है। हनुमान निष्काम गुण की प्रतिमूर्ति हैं, इसीलिए वे कहते हैं, 'रामकाज किए बिनु मोहि कहाँ विश्राम।' वे पूरी तरह समर्पित हैं राम के प्रति, बिना किसी प्रतिफल की आशा के। यही है निष्काम भक्ति की पराकाष्ठा।



हनुमान माता अंजना व पिता केसरी के पुत्र हैं, शास्त्रों में ऐसा ही वर्णित है। माता अंजना अर्थात आँख व पिता केसरी अर्थात सिंह के समान अभूतपूर्व साहस व अभय की भावना। मनुष्य में अच्छाई या बुराई आँख से ही प्रवेश करती है- आँखों का मतलब सिर्फ दैहिक आँखें नहीं, बल्कि मन की आँखें भी, हमारा नजरिया, दृष्टिकोण। हनुमान का जन्म विशुद्ध चिंतन व सिंह के समान अभय व्यक्तित्व द्वारा ही संभव है। डरा हुआ व्यक्ति अपनी बात पर अडिग नहीं रह सकता और भय वश कुछ भी कर सकता है। हनुमान अपने जीवनकाल में न किसी से डरे न ही अभिमान किया। इसलिए वे न कभी पराजित हुए और न ही उनकी मृत्यु हुई।



साईबाबा की दिव्यशक्ति से महातीर्थ बनी शिरडी

ॐ सांई राम~~~




साईबाबा की दिव्यशक्ति से महातीर्थ बनी शिरडी~~~



शिरडी के साईबाबा आज असंख्य लोगों के आराध्यदेव बन चुके है। उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके है, परंतु वे अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है। बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गई है।



कहा जाता है कि सन् 1854 ई.में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वे लगभग सोलह वर्ष के थे। शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा। उसे सर्दी-गर्मी की जरा भी चिंता नहीं थी। इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था। गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तरफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे। वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था। यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था। वह त्याग और वैराग्य का साक्षात् मूर्तिमान स्वरूप था।



कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया। कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा। खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब 'आओ साई' कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम 'साईबाबा' पड़ गया। शादी हो जाने के बाद वे चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गये। वे कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित ही है। बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं। अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वे कहलाने लगे 'शिरडी के साईबाबा'।



साईबाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया। जो भी उनके पास आया, वह कभी निराश होकर नहीं लौटा। वे सबके प्रति समभाव रखते थे। उनके यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जाति-पाति, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था। समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे। बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मसजिद को अपना ठिकाना बनाया और उसको नाम दिया 'द्वारकामाई'। बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे। भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे। कुछ दुष्ट लोग बाबा की ख्याति के कारण उनसे ईष्र्या-द्वेष रखते थे और उन्होंने कई षड्यंत्र भी रचे। बाबा सत्य, प्रेम, दया, करुणा की प्रतिमूर्ति थे। साईबाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री साई सच्चरित्र' से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साईनाथ के भक्त इस ग्रंथ का पाठ अनुष्ठान के रूप में करके मनोवांछित फल प्राप्त करते है।



साईबाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी। साईबाबा के पास एक ईट थी, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईट को तकिये की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे। सन् 1918 ई.के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मसजिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईट टूट गई। द्वारकामाई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए। साईबाबा ने भिक्षा से लौटकर जब उस टूटी हुई ईट को देखा तो वे मुस्कुराकर बोले- 'यह ईट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया।' बाबा तब से अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे।



नागपुर के प्रसिद्ध धनी बाबू साहिब बूटी साईबाबा के बड़े भक्त थे। उनके मन में बाबा के आराम से निवास करने हेतु शिरडी में एक अच्छा भवन बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। बाबा ने बूटी साहिब को स्वप्न में एक मंदिर सहित वाड़ा बनाने का आदेश दिया तो उन्होंने तत्काल उसे बनवाना शुरू कर दिया। मंदिर में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने की योजना थी।



15 अक्टूबर सन् 1918 ई. को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वे अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे है। महासमाधि के पूर्व साईबाबा ने अपनी अनन्य भक्त श्रीमती लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा- 'मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा।' बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था- 'मैं द्वारकामाई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं। मैं बूटी के वाड़े में जाऊंगा जहां ऊंचे लोग मेरी देखभाल करेगे।' विक्रम संवत् 1975 की विजयादशमी के दिन अपराह्न 2.30 बजे साईबाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि-स्थल। मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साईबाबा की मूर्ति स्थापित हुई।



महासमाधि लेने से पूर्व साईबाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी। आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले आ रहे है। साईबाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है। उनकी समाधि अत्यन्त जागृत शक्ति-स्थल है।



साईबाबा सदा यह कहते थे- 'सबका मालिक एक'। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना का संदेश देकर सबको प्रेम के साथ मिल-जुल कर रहने को कहा। बाबा ने अपने भक्तों को श्रद्धा और सबूरी (संयम) का पाठ सिखाया। जो भी उनकी शरण में गया उसको उन्होंने अवश्य अपनाया। विजयादशमी उनकी पुण्यतिथि बनकर हमें अपनी बुराइयों (दुर्गुणों) पर विजय पाने के लिए प्रेरित करती है। नित्यलीलालीन साईबाबा आज भी सद्गुरु के रूप में भक्तों को सही राह दिखाते है और उनके कष्टों को दूर करते है। साईनाथ के उपदेशों में संसार के सी धर्मो का सार है। अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा। उनकी यश-पताका आज चारों तरफ फहरा रही है। बाबा का 'साई' नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ।





जय सांई राम~~~

कुत्ते की पूँछ - पंडितजी व लक्ष्मण (बदमाश)

पंडितजी चुपचाप बैठे अपने भविष्य के विषय में चिंतन कर रहे थे

उन्हें पता ही नहीं चला कि कब एक आदमी उनके पास आकर खड़ा हो गया है
जब पंडितजी ने कुछ ध्यान न दिया तो, उसने स्वयं आवाज दी




"राम-राम पंडितजी
"



पंडितजी चौंक गये




"क्या बात है, किस सोच में पड़े हो ?"



पंडितजी ने देखा तो देखते ही रह गये
उनके सामने लक्ष्मण खड़ा था




"लक्ष्मण...तुम...
"



"हां पंडितजी
"



"कब आये ?" -पूछा पंडितजी ने




"बस सीधे आपके पास ही चला आ रहा हूं
" लक्ष्मण पंडितजी के पास बैठ गया




पंडितजी अभी भी उसे एकटक देखे जा रहे थे
कोई दो साल के बाद लक्ष्मण को देखा था
लक्ष्मण शिरडी का मशहूर बदमाश था
दो साल की सजा भुगतने के बाद अब वह जेल से सीधा आ रहा था
लक्ष्मण का इस दुनिया में कोई न था
वह एकदम अकेला था
आवारागर्दी, चोरी, गुंडागर्दी, छेड़छाड़, मारपीट करना ही उसके काम थे




लक्ष्मण बोला - "क्या बात है, बड़े चुपचाप और उदास से बैठे हैं आज आप ?"



"हां
" - पंडितजी ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा




"क्या बात हो गयी ?"



"कुछ न पूछ लक्ष्मण ! इस गांव में एक चमत्कारी बाबा आया है
उसने मेरा सारा धंधा-पानी ही चौपट कर दिया है
अब तो भूखों मरने की नौबत आ गयी है
"



लक्ष्मण आश्चर्य से बोला - "कौन है वह ?"



"लोग उसको साईं बाबा कहते हैं
"



"अच्छा कहां का है वह ?"



"क्या पता ?" पंडितजी ने कहा - "तुम अपना हालचाल कहो
"



"बस ! सीधा जेल से छूटते ही यहां चला आ रहा हूं
" लक्ष्मण मुस्कराया - "यदि तुम कहो तो बाबा को अपना चमत्कार दिखा दूं
" और वह हँसने लगा




वैसे इससे पहले कई बार लक्ष्मण की सहायता से पंडित अपने विरोधियों को धूल चटवा चुका था
वह सोचने लगा, सांप की उस चमत्कारी घटना के कारण, जो स्वयं उसके साथ घटित हुई थी, वह भुला न पा रहा था




"बोलो पंडितजी ! क्या विचार है ?"



"कोशिश कर लो !"



"कोशिश क्यों ? मैं करके दिखा दूंगा
एक ही दिन में छोड़कर भाग जाएगा
" लक्ष्मण हँसने लगा




"जैसी तुम्हारी इच्छा
"



"क्या मैं तुम्हारे लिए इतना छोटा-सा काम नहीं कर सकता हूं ?" लक्ष्मण ने कहा - "आपके तो बहुत अहसमान हैं मुझ पर
"



"पंडित चुप रह गया
"



"कहां रहता है वह चमत्कारी बाबा ?"



"द्वारिकामाई मस्जिद में
"



"क्या पता, कभी वह मुसलमान बन जाता है और कभी हिन्दू ! क्या है वह, कुछ पता नहीं
"



"ठीक है, मैं देख लूंगा उसे
"



"जरा सावधानी से
" पंडित बोला - "सुना है, बड़ा चमत्कारी है वह
"



"अच्छा-अच्छा
" लक्ष्मण बोला - "ख्याल रखूंगा
"



"ठीक है सुबह-शाम मेरे यहां आकर खाना खा गया जाया करो
रात मैं बरामदा सोने के लिए है ही
"



लक्ष्मण चला गया




पंडित चिंता में पड़ गया
कहीं फिर उसने आत्मघाती कदम तो नहीं उठा लिया
यदि चमत्कार हो गया तो इस बार साईं बाबा उसे माफ नहीं करेगा
वह परेशान था कि आखिर यह साईं है क्या ?



लक्ष्मण पंडित के पास से उठकर सीधे द्वारिकामाई मस्जिद गया
टूटी-फूटी द्वारिका मस्जिद का कायाकल्प देखकर वह हैरान रह गया
मस्जिद में चहल-पहल थी
साईं बाबा की धूनी जली हुई थी
वह उनकी धूनी के पास जाकर बैठ गया




साईं बाबा के पास उनके शिष्य बैठे थे
लक्ष्मण ने देखा, साईं बाबा कोई विशेष नहीं है
दुबला-पतला, इकहरा बदन है
एक ही हाथ में जमीन सूंघ जाएगा
हां, चेहरे पर एक अजीब-सा आकर्षक-तेज अवश्य था
"



साईं बाबा ने लक्ष्मण की ओर नजर उठाकर भी न देखा
अजनबी होने के बावजूद उससे पूछताछ न की




शिष्यगण चले गए
लक्ष्मण अकेला बैठा रह गया




उसकी उपस्थिति की सर्वथा उपेक्षा कर साईं बाबा आँखें मूंदकर लेट गए
मौका अच्छा जानकर, लक्ष्मण बाबा को धमकी देने के बारे में विचार कर रहा था




इससे पहले कि वह कुछ बोलता, साईं बाबा ने स्वयं कहा -



"मैं जानता हूं कि तू मुझे मारने आया है
"



यह बात सुनते ही लक्ष्मण बुरी तरह से चौंक गया
वह बुरी तरह घबरा गया




"मार, मार दे मुझे और अपनी इच्छा पूरी कर ले
"



साईं बाबा का चेहरा बुरी तरह से तमतमा गया




लक्ष्मण को काटो तो खून न था
वह काठ के समान जड़ होकर रह गया
साईं बाबा का रौद्र रूप देखकर वह घबरा गया
उसका शरीर पसीने से तर-ब-तर हो गया




"कोई हथियार लाया है या खाली हाथ आया है?" - साईं बाबा बोले




वह घबरा गया




"बोल, जवाब दे
"



लक्ष्मण पसीने-पसीने हो गया
वह घबराकर साईं बाबा के चरणों पर गिर गया और गिड़गिड़ाने लगा - "क्षमा कर दो बाबा
क्षमा कर दो
"



"मेरे पैर छोड़
"



"जब तक आप मुझे क्षमा नहीं करेंगे, तब तक मैं आपके पैर नहीं छोड़ूंगा
आप तो अंतर्यामी हैं
मैं आपकी महिमा को न जान सका
"



"जा माफ किया
नेक आदमी बन
"



लक्ष्मण चुपचाप सिर झुकाकर चला गया




तब साईं बाबा खिलखिलाकर हँस पड़े
एकदम बच्चों के समान थी उनकी हँसी
यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कुछ समय पूर्व उनका रूप बेहद रौद्र हो गया था




साईं बाबा के पास उनका एक शिष्य आया, तो वह बड़बड़ा रहे थे - "कुत्ते की पूँछ क्या भला कभी सीधी हो सकती है ?"



शिष्य इस बात को समझ न पाया




लक्ष्मण ने पंडित के पास जाकर हाथ जोड़कर सारा किस्सा बताया, तो पंडित का मन ग्लानी, पश्चात्ताप से भर गया
वह साईं बाबा को मान गया
उसने साईं बाबा का विरोध करना बंद कर दिया और उनका परमभक्त बन गया




गुरुभिक्षा

छत्रपति शिवाजी के गुरुदेव, समर्थ गुरु रामदास एक दिन गुरुभिक्षा लेने जा रहे थे। उन पर शिवाजी की नजर पड़ी!मेरेगुरु और भिक्षा!मैं नहीं देख सकता!प्रणाम किया! बोले-"हे गुरदेव!मैं अपना पूरा राज पाठ आपके कटोरे में दाल रहा हूँ !..अब से मेरा राज्य आपका हुआ!"तब गुरु रामदास ने कहा-"सच्चे मन से दे रहे हो! वापस लेने की इच्छा तो नहीं?"




"बिलकुल नहीं !यह सारा राज्य आपका हुआ!"



"तो ठीक है! यह लो...!"कहते कहते गुरु ने अपना चोला फाड़ दिया! उसमे से एक टुकडा निकाला!भगवे रंग का कपडा था वह !इस कपडे को शिवाजी के मुकुट पर बाँध दिया और कहा -"लो!! मैं अपना राज्य तुम्हे सौंपता हूँ-चलाने के लिए!देखभाल के लिए!""मेरे नाम पर राज्य करो! मेरी धरोहर समझ कर! मेरी अमानत रहेगी तुम्हारे पास !"



"गुरदेव ! आप तो लौटा रहें है मेरी भेंट!" कहते कहते शिवाजी की ऑंखें गीली हो गयी!

"ऐसा नहीं!कहा न मेरी अमानत है!मेरे नाम पर राज्य करो! इसे धरम राज्य बनाए रखना, यही मेरी इच्छा है!"



"ठीक है गुरुदेव! इस राज्य का झंडा सदा भगवे रंग का रहेगा! इसे देखकर आपकी तथा आपकी आदर्शों की याद आती रहेगी!"

"सदा सुखी रहो ! कहकर गुरु रामदास भिक्षा हेतु चले दिए!





एक पत्र बाबा को

एक पत्र बाबा को


शिर्डी

दिनक : 21/ 01/2011



आदरणीय साईंबाबा जी

कैसे है आप . आप की कृपा से हम कुशल मंगल है . आज दिल करा आपको पत्र लिखने का . बाबा आपका मेरे जीवन में आना मेरी खुशनसीबी है . आप मेरे जीवन का वो अनमोल रतन हो जिसे में अपनी आँखों में और दिल में छुपा कर रखना चाहती हूँ . आपकी महानता , प्यार और विश्वास मेरी आत्मा में बसते है . आप मेरा स्वाभिमान हो . आपकी करूणा , दया , आशीर्वाद , संतोष , सबर मेरे जीवन का धन है . आपने अपने चरण कमलो में जगा देकर मेरा जीवन तार - तार कर दिया . आपकी द्रिस्टी मेरे मन को छु जाती है . आपका ममता भरा आचल मेरे जीवन की तीखी धूप को ठंडी छाव देता है . श्रद्धा और सबुरी का पाठ मुझे सही राह दिखाता है . साईंसत्चरित्र की लीलाए आपके होने का अहसास दिलाती है . कहते है भगवान को पाना आसान नहीं पर मेरा बाबा तो इतना कोमल और नरम है मेरी एक ही आवाज़ से दोड़े चले आते है . बाबा मुझे हमेशा अपनी छतरछाया में रखना . मुझे इस संसार

रुपी जाल से बचाकर रखना . हमेशा अपने आशीर्वाद की चादर मुझ पर मेरे परिवार पर और समर्पण परिवार पर बनाके रखना .

आपके चरणों में मेरा कोटि कोटि प्रणाम .

बोलो सच्चीनानन्द सत्गुरू साईंनाथ महाराज की जय !!!

आपकी भक्त





आत्मा की एकता

आत्मा की एकता




वैदिक धर्म में आत्मा की एकता पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। जो आदमी इस तत्व को समझ लेगा, वह किससे प्रेम नहीं करेगा? जो आदमी यह समझ जाएगा कि 'घट-घट में तोरा साँई रमत है!' वह किस पर नाराज होगा? किसे मारेगा? किसे पीटेगा? किसे सताएगा? किसे गाली देगा? किसके साथ बुरा व्यवहार करेगा?



यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥



जो आदमी सब प्राणियों में एक ही आत्मा को देखता है, उसके लिए किसका मोह, किसका शोक?

वैदिक धर्म का मूल तत्व यही है। इस सारे जगत में ईश्वर ही सर्वत्र व्याप्त है। उसी को पाने के लिए, उसी को समझने के लिए हमें मनुष्य का यह जीवन मिला है। उसे पाने का जो रास्ता है, उसका नाम है धर्म।



ॐनम:शिवाय

ॐनम:शिवाय मंत्र का पहला अक्षर है बीजमंत्र, जिसमें तीन अक्षरों का योग है-अ, उऔर म।इन अक्षरों के स्पंदन से बनता है ॐ।यह स्पंदन ही उस अलौकिक शक्ति की पहचान है, जो हमारे भीतर आत्मबल का संचार करती है। यही स्पंदन हमारे भीतर की कुप्रवृत्तियोंको नष्ट कर हमें कल्याण के मार्ग पर आगे बढने को प्रवृत्त करता है। शिव ही नहीं जितने भी देवताओं और देवियों की परिकल्पना की गई है, सभी ऐसे ही स्पंदनों पर आधारित हैं। वास्तव में सभी देवी-देवताओं का संयुक्त स्वरूप एक ही परम ब्रह्म है, जो इस स्पंदन से प्रभावित होता है। मंत्रों का स्पंदन विभिन्न दिशाओं की ओर उत्सर्जितहोता है। वैसे ही एक-एक स्पंदन का मूल है यह बीज मंत्र। मंत्र वैसा ही स्पंदन पैदा करते हैं, जो बोलनेवालाचाहता है। यानी कोई भक्त जब विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती की उपासना करता है और मंत्र बोलता है तो उससे वायुमंडल में उत्पन्न होनेवालास्पंदन शक्ति के उसी स्वरूप को आकर्षित करता है और उसके चित्त में वही शक्ति आभासित हो उठती है। भारत के महर्षियोंने लंबे समय तक घोर तपस्या करके मंत्रों का दर्शन किया है, जिससे देवी-देवताओं तक पहुंचा जा सकता है। वैसे ही मंत्रों को वेदों में संकलित किया गया है। उन महर्षियोंने भगवान शिव के स्वरूप को अच्छी तरह पहचान लिया था। उन्होंने जान लिया था कि भगवान शिव वास्तव में तो निर्गुण निराकार हैं, लेकिन उनकी उपासना आम श्रद्धालु भक्त गण कैसे कर पाएंगे। इसलिए उन्होंने भगवान शिव को सगुण साकार रूप में देखा और संसारवासियोंको बताया। यहीं से प्रतिमाओं की कल्पना होती है। प्रतिमा शब्द का अर्थ होता है प्रतिरूप। यानी ठीक वैसा ही, जैसा स्वयं भगवान शिव हैं। हालांकि शिव का दूसरा प्रतिमानहो ही नहीं सकता, लेकिन उपासना की सुगमता को ध्यान में रखकर उनकी प्रतिमा की परिकल्पना कर ली गई है। उस दृष्टिकोण से भगवान शिव सगुण साकार रूप में अनेक विग्रहोंके स्वामी हैं, लेकिन उनके विग्रहोंमें शिवलिंगका सर्वाधिक महत्व बताया जाता है। उनकी पूजा अर्चना करना अत्यंत लाभप्रद माना जाता है, लेकिन सर्वोपरि होता है मंत्र, जिसे बोल कर अर्चना की जाती है। उस मंत्र के समुचित प्रयोग के बिना अर्चना का अर्थ ही व्यर्थ हो जाता है।








माँ का महत्व

माँ का महत्व




१ आसमान ने कहा ....माँ एक इन्द्रधनुष है ,जिसमें सभी रंग समाये हुए हैं

२ शायर ने कहा ....माँ एक ऐसी गजल है जो सबके दिल में उतरती चली जाती है

३ माली ने कहा ....माँ एक दिलकश फूल है जो पूरे गुलशन को मह्काता है

४ औलाद ने कहा ....माँ ममता का अनमोल खजाना है जो हर दिल पर कुर्बान है

५ वाल्मीकि जी ने कहा ....माता और मातर भूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा है

६ वेद व्यास जी ने कहा ....माता के समान कोई गुरु नही है

७ पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा....माँ वह हस्ती है जिसके क़दमों के नीचे जन्नत है

मोहमाया है केवल धोखा

यदि मनुष्य अपने भीतर गहराई से यह प्रश्न पूछे कि उसे किस चीज की तलाश है तो भीतर गहराई से एक ही उत्तर आएगा कि सुख व शांति की तलाश है। मनुष्य सोचता है कि ज्यादा धन कमा लूंगा तो मै सुखी हो जाऊंगा और ज्यादा यश कमा लूंगा तो मै सुखी हो जाऊंगा। बहुत कमा लेने पर भी जब वह सुख, शांति नही पाता तो मन कहता है कि सुख इसलिए नही मिला कि श्रम मे कही कमी थी और शक्ति से दौडो और धन इकट्ठा करो, जबकि केवल धन कमाने से ही सुख प्राप्त नही होता क्योंकी जिन वस्तुओ मे व्यक्ती सुख तलाश रहा है वहां सुख है ही नही। सांसारिक मोह माया तो केवल धोखा है।अगर हम भीतर से खुश है तो हमे रेगिस्तान मे भी फूल खिले हुए महसूस होगे और अगर हम दुखी है तो हमे फूलो के बगीचे मे चारों ओर कांटे ही कांटे नजर आएंगे। हम खुश है तो बाहर चिलचिलाती धूप भी अच्छी है और हम दुखी है तो बाहर का मौसम चाहे कितना खुशगवार हो तो भी हमे पतझड की तरह लगता है। क्योंकी जैसा हम भीतर से महसूस करते है, वैसा ही हमे संसार नजर आता है। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि सुख भीतर से आता है बाहर से नही।जब हम निद्रा से उठते है तो ताजगी अनुभव करते है क्योंकी धन कमाने की, यश मिलने की यात्रा ऊर्जा की बहिर्यात्रा है और निद्रा ऊर्जा की अंतर्यात्रा है। बाहर का जितना बडा ब्रह्माण्ड है उतना ही बडा भीतर का ब्रह्माण्ड है। हम मध्य मे खडे है। बाहर की तरफ यात्रा करेगे, तो केवल यात्रा ही यात्रा है पहुंचेगे कही नही क्योंकी मंजिल बाहर नही भीतर है।दूसरी बात हम सोचते है कि हम सुख की तलाश मे भटक रहे है पर यह गलत है। व्यक्ती को सुख की तलाश मे नही बल्कि उसे आनंद की तलाश मे भटकना चाहिए। चूंकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिए हम उसे ही सुख समझते है। यह देह तो केवल एक वस्त्र की भांति है परन्तु जैसे ही भीतर की यात्रा शुरू होती है वैसे-वैसे बाहर की परतें छूटती जाती है और हम अपने स्वरूप को पहचानने लगते है।




महात्मा बुद्ध

महात्मा बुद्ध किसी उपवन में विश्राम कर रहे थे। तभी बच्चों का एक झुंड आया और पेड़ पर पत्थर मारकर आम गिराने लगा। एक पत्थर बुद्ध के सिर पर लगा और उससे खून बहने लगा। बुद्ध की आंखों में आंसू आ गए। बच्चों ने देखा तो भयभीत हो गए। उन्हें लगा कि अब बुद्ध उन्हें भला-बुरा कहेंगे। बच्चों ने उनके चरण पकड़ लिए और उनसे क्षमा याचना करने लगे। उनमें से एक ने कहा, ‘हमसे भारी भूल हो गई है। हमने आपको मारकर रुला दिया।’ इस पर बुद्ध ने कहा, ‘बच्चों, मैं इसलिए दुखी हूं कि तुम ने आम के पेड़ पर पत्थर मारा तो पेड़ ने बदले में तुम्हें मीठे फल दिए, लेकिन मुझे मारने पर मैं तुम्हें केवल भय दे सका।’




संस्कारवान व्यक्ति सबको प्रिय

सभ्य समाज में रहने वाले व्यक्ति की पहचान के लिए उसका संस्कारवान होना आवश्यक है। अच्छे संस्कार ही पर्याय है सभ्यता का। यदि हम देखने में सुंदर हैं, लेकिन संस्कारों से शून्य अर्थात दरिद्र है तो हमारी सुंदरता का कोई मूल्य नहीं है।




संस्कारों के माध्यम से आदर्शो के पुंज एकत्र किए जा सकते हैं। सज्जनता हमें अपने आचरण से दीर्घकाल तक जीवित रखती है। संस्कारवान व्यक्ति जीवन में आने वाली समस्याओं का सामना करने की साम‌र्थ्य रखता है। इसके साथ ही हर व्यक्ति भी सुस्कारित मानव को ही पसंद करते है नैतिकता का सीधा संबंध आत्मबल से है जो संस्कारों से ही निर्मित होती है। हमारे गुण, कर्म, स्वभाव में घुले-मिले कुसंस्कारों को हमारे द्वारा अर्जित संस्कारों की शक्ति ही उन्हें अप्रभावित करती है। आत्मा परमात्मा का ही स्वरूप है, जो हमारे शरीर रूपी मंदिर में सदैव विराजमान रहते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने आचरण से किसी भी तरह आत्मा को कलुषित न होने दें। हमसे जुडी हुई हमारी सामाजिक जिम्मेदारियां भी है जिनका निर्वहन भी हम अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के माध्यम से करने में तभी समर्थ होंगे जब हम सुसंस्कारिता के क्षेत्र में संपन्न होंगे। संस्कार हमारे आत्मबल का निर्माण करते हैं। शालीनता, सज्जनता, सहृदयता, उदारता, दयालुता जैसे सद्गुण सुसंस्कारिता के लक्षण हैं। आधुनिकता के इस युग में संस्कारों की मजबूत लकीर धूमिल होती जा रही है, हमें इसे बचाना होगा। इस दिशा में विवेकशील लोगों को आगे आना होगा। यह मानवता, नैतिकता और समाज के विकास के लिए अति आवश्यकता है। सामाजिक संतुलन सुसंस्कारिता के आधार पर ही कायम रखा जा सकता है अन्यथा सर्वत्र अराजकता का ही बोल बाला हो जाएगा, जो एक सभ्य समाज के लिए असहनीय बात होगी, क्योंकि हर कोई सुख, शांति, प्रगति और सम्मान चाहता है जो संस्कारों के द्वारा ही संभव है। संस्कार हमें नैतिकता की शिक्षा देते हैं। मानवता इसी से पोषित होती है। चरित्र निर्माण के लिए संस्कारों की पृष्ठभूमि निर्मित करनी होती है। रहन-सहन का तरीका, जीवन जीने की कला, लोकव्यवहार आदि सदाचार से संबंधित बातें है जो हमें जीवन में सुख, शांति, समृद्धि और प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करती है। समाज में भाई चारा और आत्मीयता का विस्तार भी नैतिकता और मानवता के माध्यम से ही संभव है। यदि हम सुखी होंगे तो हमारे पडोसी भी सुखी होंगे इस भावना को यदि हम अपने परिवार से ही विकसित करेंगे तो निश्चय ही आत्मीयता का विस्तार होगा।

सरल है भक्तिमार्ग

परम लक्ष्य की सिद्धि के लिए मार्ग कौन श्रेष्ठ है, ज्ञान या भक्ति? गोस्वामी तुलसीदास का स्पष्ट मत है कि ज्ञानमार्गकी तुलना में भक्तिमार्ग अधिक सरल है, ऋजु है, अत:सामान्य साधक के लिए यही मार्ग वरेण्य है। मानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी जी लिखते हैं: जीव ईश्वर का ही निर्मल है। परन्तु माया के बंधन में फंसकर उसकी गति पिंजरे में पडे तोते और मदारी की डोर से बंधे बंदर जैसी हो गई है। अब प्रश्न यह है कि जीव माया के बंधन से छूटे कैसे? इसके लिए दो मार्ग हैं, ज्ञान और भक्ति। ज्ञानमार्गअति दुर्गम और दुरूह है। भक्तिमार्ग अति सुगम है। ज्ञान और भक्तिमार्ग का अन्तर स्पष्ट करने के लिए गोस्वामी जी एक लम्बा रूपक बांधते हैं।




माया के कारण जीव के हृदय में घोर अंधकार भरा रहता है। घने अंधकार के कारण जीव माया के बंधन की गांठ सुलझाने में अक्षम सिद्ध होता है। बंधन की गांठ खोलने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। प्रकाश पाने के लिए जीव को बडी लम्बी साधना करनी पडती है। ईश्वर की कृपा से जीव के हृदय में श्रद्धा रूपी गाय का समागम होता है। यह गाय जप-तप रूपी घास चर करके सद्भाव रूपी बछडे को जन्म देती है। सद्भाव रूपी बछडा जब श्रद्धा रूपी गाय के स्तन को स्पर्श करता है तो वह पेन्हाजाती है। पेन्हानेके पश्चात् जीव का निर्मल मन रूपी दोग्धाविश्वास रूपी पात्र में गाय को दुहता है। तदनन्तर ज्ञानमार्गका पथिक जीव धर्मरूपीइस दुग्ध को निष्कामताकी अग्नि में औटाताहै। औटायाहुआ धर्मदुग्धजीव के क्षमा और संतोष रूपी शीतल वायु के स्पर्श से ठंडा होता है। तत्पश्चात् जीव इस दुग्ध में धैर्य रूपी जामन डालकर इसे जमाता है। फिर वह दही को पुनीत विचार रूपी मथानी से मथता है। मथानी को चलाने के लिए जीव इसे इन्द्रिय निग्रह एवं सत्याग्रह रूपी रस्सियों से बांधता है। ऐसी मथानी से धर्मदुग्धके मथने से जीव को वैराग्यरूपीनवनीत (मक्खन) की प्राप्ति होती है। नवनीत रूपी वैराग्य की प्राप्ति के उपरान्त जीव योगरूपीअग्नि को प्रकट करता है और इसी अग्नि की ज्वाला में अपने सभी पूर्व शुभाशुभ कमरें को कर देता है। इतना सब करने के उपरान्त जीव को विज्ञान रूपी बुद्धिघृतकी सम्प्राप्ति होती है। जीव इस बुद्धिघृतको चित्त रूपी दीये में डालकर इसे समता रूपी दिऔटेपर स्थापित करता है। साथ ही जीव अपने चित्त रूपी कपास से सत, रज, तम इन तीन गुणों को निष्कासित करके, जागृति, स्वप्न एवं सुसुप्तिअवस्थाओं से ऊपर उठकर दीपक में डालने के लिए तुरीयावस्था की बाती बनाता है। इतना सब कर्मकाण्ड करने के पश्चात् जीव विज्ञान रूपी दीपक को प्रज्वलित कर देता है। इस दीपक के आसपास मंडराते काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मात्सर्य के कीट-पतंग जलकर भस्म हो जाते हैं।



इसी दीपक के प्रकाश में जीव को सहसा यह अनुभूति होती है कि वह स्वयं ब्रह्म है (सोऽहमस्मि)। उसके हृदय का माया जनित संपूर्ण अंधकार उच्छिन्न हो जाता है। सोऽहमस्मिजीव का सारा भ्रम नष्ट कर देती है। अविद्या और अज्ञान की पूरी बारात चित्तवृत्तिओले की भांति गल जाती है। ज्ञान के इसी प्रकाश में जीव की बुद्धि मायाजनितबंधन की उन गांठों को खोलने का प्रयास करती है, जिनके कारण वह भवचक्र में पडा हुआ है। परंतु ज्यों ही जीव इस कार्य में प्रवृत्त होता है, माया उसके सम्मुख भांति-भांति के विघ्न और प्रलोभन लेकर उपस्थित होती है। माया जीव को ऋद्धि-सिद्धि के मोहजालमें फंसाने का प्रयास करती है। माया के लम्बे हाथ दीपक तक पहुंच जाते हैं। वह अपने आंचल की हवा से जीव के चित्त में प्रज्वलित विज्ञानदीपको बुझा देती है। जीव यदि एकनिष्ठभाव में अपनी साधना में प्रवृत्त रहता है तो वह ऋद्धि-सिद्धि के आकर्षण में नहीं फंसता। वह माया की आंखों से आंखें नहीं मिलाता। ऐसा ही विरल जीव अपने लक्ष्य पर आरूढ हो पाता है। ऐसा भी होता है कि माया के असफल होने की स्थित में देवगण जीव को लक्ष्य-भ्रष्ट करने के लिए भांति-भांति के उत्पात मचाते हैं। पांचों ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारों पर देवताओं का वास रहता है। देवता जब देखते हैं कि बाहर से विषयों की आंधी जीव की ओर बढ रही है तो वे ज्ञानेन्द्रियोंके गवाक्षखोल देते हैं। विषय की आंधी जीव के चित्त में पहुंचकर हठात् उसके विज्ञान दीप को बुझा देती है। जीव माया सृजित बंधन की गांठ सुलझाने में सफल नहीं हो पाता। इस प्रकार जीव पुन:भवचक्र में गिर जाता है और नाना प्रकार के सांसारिक दु:खों को भोगने के लिए बाध्य हो जाता है। गोस्वामी जी ऐसा मानते हैं कि ज्ञानमार्गपर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। थोडी सी असावधानी हुई कि जीव साधना-क्षेत्र से बाहर हो जाता है। जो जीव एकनिष्ठभाव से ज्ञानमार्गका अनुसरण करता है, उसी को कैवल्य पद की प्राप्ति होती है।



ज्ञान मार्ग में विघ्न बाधाएं बहुत हैं। भक्तिमार्ग सारी विघ्न-बाधाओं से मुक्त है। भक्तिमार्गानुगामीजीव को भक्तिपथपर सतत् अग्रसर होने के लिए रामनामरूपीचिन्तामणि से निरन्तर प्रकाश मिलता है। जीव को प्रकाश के लिए दीपक, घी, बाती जैसी सामग्री की आवश्यकता नहीं पडती। चिन्तामणि के पास काम, क्रोध जैसी दुष्ट प्रवृत्तियां फटकती तक नहीं। लोभ की आंधी भी चिन्तामणि के प्रकाश को बुझा नहीं सकती। चिन्तामणि अज्ञान के सघन अंधकार को मिटाकर निरन्तर प्रकाश ही प्रकाश बिखेरती रहती है। जिस जीव के हृदय में रामभक्तिरूपीचिन्तामणि विद्यमान है, वह सांसारिक क्लेशों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। जीव को चिन्तामणि की प्राप्ति ईश्वरीय कृपा से ही होती है। गोस्वामी जी के शब्दों में :



राम भगतिचिन्तामणि सुंदर। बसइगरुड जाके उर अंतर।। परम प्रकासरूप दिन राती।नहिंकछुचहियदिया घृत बाती।। सेवक सेव्य भाव बिनुभव न तरियउरगारि।भजहुरामपदपंकज अससिद्धान्त विचारि।।



ब्रह्म ज्ञान पाने का सच्चा अधिकारी




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साईं बाबा की प्रसिद्धि अब बहुत दूर-दूर तक फैल गयी थी
शिरडी से बाहर दूर-दूर के लोग भी उनके चमत्कार के विषय में जानकर प्रभावित हुए बिना न रह सके
वह साईं बाबा के चमत्कारों के बारे में जानकर श्रद्धा से नतमस्तक हो उठते थे




एक पंडितजी को छोड़कर शिरडी में उनका दूसरा कोई विरोधी एवं उनके प्रति अपने मन में ईर्ष्या रखने वाला न था
बाबा के पास अब हर समय भक्तों का जमघट लगा रहता था
वह अपने भक्तों को सभी से प्रेम करने के लिए कहते थे
इतनी प्रसिद्धि फैल जाने के बाद भी बाबा का जीवन अब भी पहले जैसा ही था
वह भिक्षा मांगकर ही अपना पेट भरते थे
रुपयों-पैसों को वह बिल्कुल भी हाथ न लगाते थे
श्रद्धालु भक्त अपनी श्रद्धा से जो कुछ दे जाया करते थे, उनके शिष्य उनका उपयोग मस्जिद बनाने और गरीबों की सहायता करने में किया करते थे




मस्जिद के एक कोने में बाबा की धूनी सदा रमी रहती थी
उसमें हमेशा आग जलती रहती थी और साईं बाबा अपनी धूनी के पास बैठे रहा करते थे
बाबा जमीन पर सोया करते थे
बाबा सदैव कुर्ता, धोती और सिर पर अंगोछा बांधे रहते थे और नंगे पैर रहते थे, यही उनकी वेशभूषा थी




अहमदाबाद में एक गुजराती सेठ थे, उनके पास बहुत सारी धन-सम्पत्ति थी
सभी तरह से वह सम्पन्न थे
साईं बाबा की प्रसिद्धि सुनकर उनके मन में भी बाबा से मिलने की इच्छा पैदा हुई




बाबा से मिलने के पीछे उनके दिल में एक ही वंशा थी - वह मन-ही-मन सोचते, सांसारिक सुखों की तो सभी वस्तुएं मेरे पास मौजूद हैं, क्यों न कुछ आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त कर लिया जाये, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति हो
वह अपना परलोक भी सुधार लेना चाहते थे
इसलिए साईं बाबा से मिलने को अत्यंत उत्सुक थे
इसी दौरान एक साधु उसके पास आये
यह भी साईं बाबा के भक्त थे
उन्होंने भी उस सेठ को बताया
यह सुनकर साईं बाबा से मिलने की इच्छा और भी तीव्र हो गयी
उन्होंने साईं बाबा से मिलने का निश्चय किया और शिरडी के लिए रवाना हो गये




जिस दिन वह शिरडी आये, उस दिन बृहस्पतिवार का दिन था, बाबा के प्रसाद का दिन
सेठ की सवारी जब द्वारिकामाई मस्जिद के पास आकर रुकी, उस समय लोगों की वहां पर अपार भीड़ जमा थी




बृहस्पतिवार को शिरडी गांव के ही नहीं, बल्कि दूर-दूर के अनेक गांव के लोग भी साईं बाबा की शोभायात्रा में शामिल होने के लिए द्वारिकामाई मस्जिद आते थे
बाबा की शोभायात्रा निकाली जाती थी
जो द्वारिकामाई मस्जिद से चावड़ी तक जाती थी
साईं बाबा के भक्त झांझ, मदृंग, ढोल, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाते, भक्ति गीत तथा कीर्तन गाते हुए सबसे आगे-आगे चलते थे
इस जलूस में महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हुआ करती थीं
उनके पीछे दर्जनों सजी हुई पालकियां होती थीं और सबसे आखिर में विशेष रूप से एक सजी हुई पालकी होती थी, जिसमें साईं बाबा बैठते थे
बाबा के शिष्य पालकी को अपने कंधों पर उठाकर चलते थे
पालकी के दोनों ओर जलती हुई मशालें लेकर मशालची चला करते थे




जुलूस के आगे-आगे आतिशबाजी छोड़ी जाती थी
सारा गांव साईं बाबा की जय, भजन तथा कीर्तन की मधुर ध्वनि से गुंजायमान हो उठता था
चावड़ी तक यह जुलूस जाकर फिर इसी तरह से द्वारिकामाई मस्जिद की ओर लौट आता था
जब पालकी मस्जिद के सामने पहुंच जाती थी, मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़ा हुआ शिष्य बाबा के आगमन की घोषणा करता था
बाबा के सिर पर छत्र तान दिया जाता था
मस्जिद की सीढ़ियों पर दोनों ओर खड़े लोग चँवर डुलाने लगते थे
रास्ते में फूल, गुलाल और कुमकुम आदि बरसाये जाते थे




साईं बाबा हाथ उठाकर वहां एकत्रित भीड़ को अपना आशीर्वाद देते हुए धीरे-धीरे चलते हुए अपनी धूनी पर पहुंच जाते थे
सारे रास्ते भर 'साईं बाबा की जय' का नारा गूंजा करता था
जुलूस के दिन शिरडी के गांव की शोभा देखते ही बनती थी
हिन्दू-मुसलमान सभी मिलकर साईं बाबा का गुणगान करते थे




साईं बाबा की शोभायात्रा को देखकर गुजराती सेठ चकित रह गया
वह बाबा के पीछे-पीछे चलते हुए अन्य भक्तों के साथ चलते हुए बाबा की धूनी तक आ गया




उन्होंने बाबा के चेहरे की ओर देखा
कुछ देर पहले ही बाबा का जुलूस राजसी शानो-शौकत से निकाला गया था, लेकिन बाबा के चेहरे पर किसी प्रकार के अहंकार या गर्व की झलक तक नहीं थी
उनके चेहरे पर सदा की तरह शिशु जैसा भोलापन छाया हुआ था
गुजराती सेठ साईं बाबा के चरणों में झुक गया
बाबा ने उन्हें बड़े स्नेह से उठाकर अपने पास बैठा लिया




गुजराती सेठ ने हाथ जोड़कर कातर स्वर में कहा - "बाबा ! परमात्मा की कृपा से मेरे पास सब कुछ है
धन-सम्पति, जायदाद, संतान सब कुछ है
संसार के सभी मुझे प्राप्त हैं
आपके आशीर्वाद से मुझे किसी प्रकार का अभाव नहीं है
"सेठ की बात सुनने के बाद बाबा ने हँसते हुए कहा - "फिर आप मेरे पास क्या लेने आए हैं ?"



"बाबा, मेरा मन सांसारिक सुखों से ऊब गया है
मैंने धनोपार्जन करके अपने इस लोक को सुखी बना दिया है
अब मैं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर अपना परलोक भी सुधार लेना चाहता हूं
"



"सेठजी, आपके विचार बहुत सुंदर हैं
मेरे पास जो कोई भी आता है, मैं यथासंभव उसकी मदद करता हूं
"



साईं बाबा की बात सुनकर सेठ को अत्यंत प्रसन्नता हुई
उसे विश्वास हो चला था कि साईं बाबा उसे अवश्य ही ज्ञान प्रदान करेंगे
जिस विश्वास को लेकर वह यहां आया है, वह अवश्य ही यहां पर पूरा होगा
वहां का वातावरण देखकर वह और प्रसन्न हो गया था




गुजराती सेठ बेफिक्र हो गया था उसे पूरा-पूरा विश्वास हो गया था कि उसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा




अचानक साईं बाबा ने अपने एक शिष्य को अपने पास बुलाया और उससे बोले - "एक छोटा-सा काम कर दो
अभी जाकर धनजी सेठ से सौ रुपये मांग लाओ
"



वह शिष्य हैरानी से साईं बाबा के मुख की ओर देखता रह गया
बाबा को शिरडी में आए हुए इतने वर्ष बीत गए थे, लेकिन उन्होंने आज तक कभी पैसे को हाथ भी न लगाया था
भक्त और शिष्य उन्हें जो कुछ भेंट दे जाते थे, वह सब उनके दूसरे प्रमुख शिष्यों के पास ही रहता था
उनके आसन के नीचे पांच-दस रुपये अवश्य रख दिये जाते थे
वह इसलिए कि यदि बाबा प्रसन्न होकर अपने भक्त को कुछ देना चाहें, तो दे दें
बाबा जब कभी-कभार किसी भक्त पर प्रसन्न होते थे, तो अपने आसन के नीचे से निकालकर दो-चार रुपये दे दिया करते थे
आज बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी? शिष्य इसी सोच में डूबा हुआ धनजी सेठ के पास चला गया




कुछ देर बाद उसने लौटकर बताया कि धनजी सेठ तो पिछले दो दिन से बम्बई (मुम्बई) गए हुए हैं




"कोई बात नहीं
तुम बड़े भाई के पास चले जाओ
वह तुम्हें सौ रुपये दे देंगे
"



हैरान-परेशान-सा वह फिर से चला गया




तभी बृहस्पतिवार को होने सामूहिक भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया
उस दिन जितने भी लोग शोभायात्रा में शामिल हुआ करते थे वह सभी मस्जिद में ही खाना खाया करते थे
जात-पात, ऊंच-नीच छुआ-छूत की भावना का त्याग करके सभी लोग एक साथ बैठकर बाबा के भंडारे का प्रसाद पूरी श्रद्धा के साथ ग्रहण किया करते थे




साईं बाबा ने उस गुजराती सेठ से कहा - "सेठजी, आप भी प्रसाद ग्रहण कीजिए
"



"मैं तो भोजन कर चूका हूं बाबा! खाने की मेरी इच्छा नहीं है
आप मुझे ज्ञान दीजिए
मेरे लिए यही आपका सबसे बड़ा प्रसाद होगा
" सेठ ने हाथ जोड़कर कहा




तभी शिष्य सेठ की दूकान से वापस लौट आया
उसने बताया कि सेठ का भाई भी अपने किसी संबंधी के यहां गया हुआ है
दो-तीन दिन बाद लौटेगा




"कोई बात नहीं, तुम जाओ
" साईं बाबा ने एक लंबी सांस लेकर कहा




शिष्य की परेशानी की कोई सीमा न थी
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि साईं बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी? साईं बाबा उठकर मस्जिद के चबूतरे के पास चले गए
जहां शोभायात्रा से आए हुए लोग प्रसाद ग्रहण कर रहे थे




बाबा चबूतरे के पास ही एक टूटी दीवार पर जा बैठे और अपने शिष्यों तथा भक्तों को देखने लगे
इस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसी ही प्रसन्नता के भाव थे, जैसे किसी पिता के चेहरे पर उस समय होते हैं, जब वह अपनी संतान को भोजन करते हुए देखता है
गुजराती सेठ साईं बाबा के पास खड़ा कार्यक्रम को देखता रहा
कुछ देर बाद जब बाबा अपने आसन पर आकर बैठ गए तो गुजराती सेठ ने फिर से अपनी प्रार्थना दोहरायी




बाबा इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े
हँसने के बाद उन्होंने गुजराती सेठ की ओर देखते हुए पूछा - "सेठजी, क्या आपने यह सोचा है कि आप ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हैं भी अथवा नहीं ?"



"मैं कुछ समझा नहीं
" सेठ बोला




"देखो सेठजी! ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी वह व्यक्ति होता है, जिसके मन में कोई मोह न हो
सांसारिक विषय वस्तुओं के लिए लालसा न हो, त्याग की भावना हो और जो संसार के प्रत्येक प्राणी को चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो या कीट-पतंग सभी को अपने समान समझकर समान भाव से प्यार करता हो
"



"आप बिल्कुल ठीक कहते हैं
" गुजराती सेठ बोला




"नहीं सेठ, तुम झूठ बोलते हो
तुम्हारे मन में सारी बुराइयां अभी भी मौजूद हैं
यदि तुम्हारे मन में धन के प्रति आसक्ति न होती और कुछ त्याग की भावना होती, तो जब मैंने अपने शिष्य को दो बार रुपये लाने के लिए भेजा था और वह दोनों बार खाली हाथ लौटकर आया था, तब तुम अपनी जेब से भी निकालकर रुपये दे सकते थे
जबकि तुम्हारी जेब में सौ-सौ के नोट रखे हुए थे
पर तुमने यह सोचा कि मैं सौ रुपये बाबा को मुफ्त में क्यों दूं? मैंने तुमसे भण्डारे में प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहा, तो तुमने प्रसाद ग्रहण करने से तुरंत इंकार कर दिया, क्योंकि वहां सभी जातियों और धर्मों के लोग एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे
इसलिए तुम किसी भी दशा में ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो




जिस व्यक्ति के मन में लोभ नहीं होता है, जिसकी दृष्टि में समभाव होता है, उसे स्वयं ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है
तुम ज्ञान पाने के अधिकारी तभी हो सकते हो, जब तुम में यह बातें पैदा हो जायेंगी
"



गुजराती सेठ को ऐसा लगा जैसे बाबा ने उसकी आत्मा को झिंझोड़कर रख दिया हो
उसका चेहरा उतर गया




साईं बाबा ने सेठ को वापस चले जाने के लिए कह दिया
वह चुपचाप उठा और बाबा के चरण स्पर्श करके वापस चल दिया
उसके पास अब कहने को कुछ नहीं बचा था

सत्य का धारण

सत्य का धारण




ब्रह्म अनंत-अगोचर है। जीव प्राय: परमात्मा को ग्रहण नहीं कर पाता, लेकिन जीवन में जीवन-दाता को पाना होता है। सच्चाई यह है कि मनुष्य अपने जीवन-वन में भटकता रहता है, उसे भगवान को पाने की सुध नहीं रहती। मानव ने जीवन को रहस्यमय बना दिया है। उसकी छटपटाहट, उसकी व्यग्रता, उसका झुकाव सदैव संसार की वस्तुओं में है। जीवन का एक-एक पल शरीर के लिए जी रहा है। ईश्वर की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, स्वार्थो की ओर ध्यान अवश्य जाता है। मनुष्य प्रभु से सांसारिक चीजें मांगता है। उसका ध्यान प्रभु में न होकर संसार में लगा है। जीवन में वह क्या करता है, क्या चाहता है-उसे स्वयं स्पष्ट नहीं। जीवन के उद्देश्य से लेकर लक्ष्य तक कुछ भी ज्ञात नहीं। बस रहस्य का पिटारा है जीवन। मनुष्य ने यही हाल बनाया है अपने जीवन का। रहस्यमय जीवन का अभ्यस्त मानव कर्म को सद्कर्म मानता है।



वस्तुत: सद्कर्म ही धर्म है। कर्म-अकर्म का बंधन जीवन प्रवाह है। इस प्रवाह की दशा और दिशा दोनों निश्चित नहीं है। प्रकृति एक समान व्यवहार करती है, किंतु मनुष्य की प्रकृति ऐसा नहीं करती। मनुष्य बाधक है प्रकृति के संचालन में। हर मनुष्य धर्म, कर्म, प्रेम, एकता और शांति के लिए समान प्रकृति से विमुख क्यों है? क्यों जीवन को रहस्य के अंधकार में जी रहा है? इस रहस्य को हटा कर मानवता के लिए तत्पर होना चाहिए। अंधकार को मिटाकर परमात्मा को ग्राह्य बनाया जाए। असंभव से संभव की ओर चलें, संभव से अंसभव की ओर नहीं। बियावान जंगल की तरह जीवन के भेदों को रहस्यमयी अंधकार में छोड़ना सर्वथा अनुचित होगा। न ही जीवन के रहस्य से डरना या आशंकित रहना उचित है। इसका भेदपूर्ण रहस्य अत्यंत सरल है। मानव को इस रहस्य से पर्दा उठाने में कोई कठिनाई नहीं है। भय व संशय त्यागकर सत्य अपनाना और असत्य त्यागना चाहिए। यह कार्य साधारण है। सत्य से परे सभी कार्य सामान्य नहीं रह जाते। सत्य धारण करने का अर्थ है धर्म को धारण करना। सत्य के साथ जीवन अंधकारमय नहीं हो सकता इसलिए रहस्यमय भी नहीं रहता। असत्य सदैव रहस्य को गहराता है। सत्य रहस्यमय जीवन के स्थान पर उसे खुली किताब की तरह बनाने में सक्षम है। यह परमात्मा को ग्रहण करने का मार्ग भी है।

sai baba

सत्संग से बाबा सांई की प्राप्ति सुगम




जिस प्रकार गन्ने को धरती से उगाकर उससे रस निकालकर मीठा तैयार किया जाता है और सूर्य के उदय होने से अंधकार मिट जाता है उसी प्रकार सत्संग में आने से मनुष्य को प्रभु मिलन का रास्ता दिख जाता है और उसके जीवन का अंधकार मिट जाता है। इस तरह बार बार सत्संग में जाने से मानव का मन साफ होना शुरू हो जाता है और मानव पुण्य करने को पे्ररित होता है जिससे उसे प्रभु प्राप्ति का मार्ग सुगमता से प्राप्त होता है।



मानव द्वारा किए गए पुण्य कर्म ही उसे जीवन की दुश्वारियों से बचाते हैं और जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने में सहायक होते हैं। जीवन में असावधानी की हालत में व विपरीत परिस्थितियों में यही पुण्य कर्म मनुष्य की सहायता करते हैं। अगर मनुष्य का जीवन में कोई सच्चा साथी है तो वह है मनुष्य का अर्जित ज्ञान और उसके द्वारा किए गए पुण्य कर्म। मगर इसके लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि व विवेक के द्वारा ही उचित अनुचित का फैसला करना होता है। कोई भी मानव अपनी बुद्धि व विवेक अनुसार ही जीवन में अच्छे-बुरे व सार्थक-निरर्थक कार्यो में अंतर को समझता है। सत्संग वह मार्ग है जिस पर चलकर मानव अपना जीवन सफल बना सकता है। कान शास्त्रों के श्रवण से सुशोभित होता है न कि कानों में कुण्डल पहनने से। इसी प्रकार हाथ की शोभा सत्पात्र को दान देने से होती है न कि हाथों में कंगन पहनने से। करुणा, प्रायण, दयाशील मनुष्यों का शरीर परोपकार से ही सुशोभित होता है न कि चंदन लगाने से।



शरीर का श्रृंगार कुण्डल आदि लगाकर या चंदन आदि के लेप करना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह सब तो नष्ट हो सकता है परन्तु मनुष्य का शास्त्र ज्ञान सदा उसके साथ रहता है। मनुष्यों द्वारा किए गए दान व परोपकार उसके सदा काम आते हैं और परमार्थ मार्ग पर चलने वाला मनुष्य ही मानव जाति का सच्चा शुभ चिंतक होता है। प्रेम से सुनना समझना व प्रेम पूर्वक उसका मनन कर उसका अनुसरण करना ही मनुष्य को फल की प्राप्ति कराता है। लेकिन मनुष्य की चित्त वृत्ति सांसारिक पदार्थो में अटकी होने के कारण वह असत्य को ही सत्य मानता है। इसी कारण वह दुखों को भोगता है। शरीर को चलाने वाली शक्ति आत्मा अविनाशी सत्य है और वही कल्याणकारी है।



सर्वतोमुखी विकास

सर्वतोमुखी विकास




जब हमारी दृष्टि किसी सुखी पर पड़े तो हम उसे देखकर प्रसन्न हो जाएं। ऐसे ही जब हमारी दृष्टि किसी दु:खी पर पड़े तो हम उसे देखकर करुणित हो जाएं। तब उन सुखी व दु:खी व्यक्तियों में एकता आ जायेगी। प्रीति का अभाव ही परस्पर संघर्ष का कारण है। कर्तव्य-परायणता से ही संघर्ष का अंत होता है। जब सेवा और प्रीति तो रहे, पर उसमें अहम् भाव की गंध न रहे तब अनंत के मंगलमय विधान से तद्रूपता होती है। जो अपना सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक नहीं दे सकता, वह किसी का प्रेमी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रेम बातों से ही नहीं होता। यदि हम मिले हुए का दुरुपयोग न करें, तो किसी से शासित नहीं रह सकते। हम इस बात का इंतजार न करें कि कोई उद्धारक आयेगा और पुíनर्माण करेगा, हम जिसमें अपूर्व हैं उससे अधिक अपूर्व कोई और नहीं आएगा। सुंदर समाज का निर्माण तो केवल मानवता से ही संभव है। अपनी विचार-प्रणाली का आदर करें, तभी समाज में सर्वतोमुखी विकास संभव है। हमें अपनी प्रणाली से अपने को सुंदर बनाना है। समाज को सुंदरता अभीष्ट है, प्रणाली नहीं।

संतोष

मनुष्य को संतोष से जो सुख मिलता है वह सबसे उत्तम है और उसी सुख को मोक्ष सुख कहते हैं। इसीलिए जीवन में संतोष को परम सुख का साधन कहा जाता है।




मनुष्य के जीवन में संतोष परम सुख का साधन है प्रत्येक आत्म शुद्धि के इच्छार्थी को संतोषी होना चाहिए क्योंकि संसार में जो काम सुख-कामना की पूर्ति का सुख है और जो भी दिव्य स्वर्गीय सुख है वे सुख तृष्णा के नाश से प्राप्त होने वाले सुख की 16वीं कला के समान नहीं हो सकते। धन ऐश्वर्य आदि भोग सामग्री की स्वलप्ता में ईश्वर संसार प्रारब्ध पर किसी प्रकार से इसी गिला व रोष प्रकट न करना और अधिकता में हर्ष न करना संतोष सुख कहलाता है।



वाचालता का त्याग, निंदा व कटु वचन सुनने पर, हानि होने पर, क्रोध आदि से आवेश में न आकर, दुर्वचनों का त्याग, स्वल्प भाषण, विवाद त्याग और यथा शक्ति मौनधरणा संतोष कहलाता है। शरीर से निंदित व बुरे कर्म न कराना ही श्रेष्ठ है। संतोष रूपी अमृत से जो मनुष्य तृप्त हो जाता है, उसे महापुरुषों के समान सुख मिलता है। धन ऐश्वर्य के लोभ करने वाले व इधर-उधर भागने वाले मनुष्य को कभी भी संतोष नहीं मिलता। ऐसे व्यक्ति के मन में सदैव बेचैनी रहती है तथा वह लोभ,मोह आदि व्यसनों में पड़कर दुखी रहता है। साथ ही जो मानव बुरे कर्म व निंदनीय कार्य करता है वह भी भय के कारण दुख का भागी बनता है। जबकि मन में संतोष होने पर मनुष्य व्यर्थ की लालसा में नहीं पड़ता है। जिससे वह व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो जाता है। संतोष धन को इसीलिए सबसे बड़ा धन कहा गया है।

"तुम्हें प्यार मिला ये बङी बात है.. पर तुमने प्यार किया ये ज्यादा खूबसूरत एह्सास है""

"तुम्हें प्यार मिला ये बङी बात है.. पर तुमने प्यार किया ये ज्यादा खूबसूरत एह्सास है""




अगर कर सकते हो तो मह्सूस करो इस एह्सास को.. और दे सकते हो तो इतना प्यार दो कि कभी कोई कमी ना पङे.. कभी लेने की उम्मीद मत रखो.. प्यार उम्मीद पर नहीं किस्मत से मिलता है.. ये वो लकीर है जो हर हथेली पर नहीं होती...अगर कर सकते हो तो दुआ करो.. कि तुम्हें ना मिला ना सही.. पर उन्हें मिले जिन्हें तुम चाहते हो.. इसे देने कि खुशी मह्सूस करो.. जो खो जाने में लुत्फ़ है वो मिलने में नहीं.."



प्यार ये भी तो है कि आप किसी से प्यार करते हैं भले ही वो आपसे प्यार नहीं करता.. कि आप किसी के साथ हैं हमेशा.. कि कोई खुश है तो तुम खुश हो..कि तुमने किसी को सब कुछ दे दिया है बिना किसी उम्मीद के.. कि आप किसी पर विश्वास करते हो क्यूंकि आप प्यार करते हैं...तुम किसी को चाहते हो और तुम्हें उसका ख्याल है.. कि कोइ हंसता है तो तुम हंसते हो.. कि तुम किसी के ख्वाब देखते हो.. कि तुमने वादा किया है किसी का साथ निभाने क उम्र भर... कि तुमने बस उसे चाहा है। प्यार किसी का हो जाने का संतोष भी है.. तो किसी के बिछङ जाने का गम भी है.. और खुशी भी कि कुछ देर हि सही पर आप साथ थे.. प्यार ये भी कि तुम किसी के हो चुके हो.. प्यार तो बस प्यार है.. प्यार एह्सास है रिश्ता नहीं।



"ये वो दौलत है जो कभी घटती नहीं... तुम्हें कितना मिला ये तुम्हारी किस्मत.. तुमने कितना दिया ये तुम्हारी नीयत... प्यार तुम या मैं नहीं.. प्यार हम है.. प्यार सब है... प्यार रिश्ता नहीं.. प्यार बंधन नहीं.. प्यार तो तुममें , हममें , सबमें है.... प्यार दिलों में है.. इसे बंधनों में मत बांधो.... फ़ैलने दो आज़ादी से... महकने दो इसकी खुश्बू को..... प्यार तुम्हारा नहीं ना सहीं किसी का तो है, कहीं तो है...." प्यार किसी ओर का नही ये तो मेरे बाबा साँई का है। बहा दो सबको इस प्यार में लूट लो यह प्यार, मेरे बाबा इन्तज़ार कर रहे हैं। आओ साथ चलें हाथों मे हाथ डाल।



जीवन का रहस्य

जीवन का रहस्य




जीवन को अनेक अर्थो में निरूपित किया जाता है और विभिन्न प्रसंगों में यह रेखांकित होता रहा है, लेकिन जीवन का वास्तविक भेद क्या है, इस पर मतभेद है। जो प्राणी अपने जीवन को जैसा समझ पाता है वैसा ही उसको जीता है। प्राय: सभी लोग जीवन को अपनी-अपनी समझ के अनुसार समेटते या विस्तार करते हैं। जीवन को क्या करना चाहिए, यह भी समस्या है, लेकिन इस समस्या को हर कोई बनाए रखना चाहता है, इसे सुलझाने वाला कोई बिरला ही पहले पहल जीवन का रहस्य जान पाता है। जीवन का मार्ग ज्ञात न हो, तो उसका रहस्य मालूम नहीं हो सकता, यदि विचार करके देखा जाए तो जीवन का प्रवाह स्वयं से अन्य की ओर होता है। जीव से आत्मा की ओर सर्वथा नैसर्गिक मार्ग है। जीवन तो दूसरों के लिए ही है, अपने लिए नहीं-यह सामाजिक व्याख्या है, लेकिन यह जीवन का रहस्य कदापि नहीं खोलती। जीवन का रहस्य अपने आप में है, अपनी समझ में है। बस जीवन का भोग मात्र अपने लिए भर न हो, दूसरों के लिए भी हो। इसमें भी भेद है। अपनों के लिए न जी कर परायों के लिए जिया जाए। जीवन का मुक्त मार्ग यहीं से खुलता है, इसके रहस्य को पाना आसान नहीं।



जीवन को जीवनदाता बाबा साँई की धरोहर मानकर इसके रहस्य से जो व्यक्ति जितना परिचित हुआ उसे उतना ही फल मिला। ज्ञानियों ने जीवन के भेद को संसार के समक्ष प्रकट किया। जीवन के अंतर्निहित भेदों को जानने की उत्सुकता होनी चाहिए, रहस्यों के भीतर झांकने का साहस चाहिए। जब जिज्ञासा और साहस नहीं रहता तो जीवन नीरस प्रतीत होता है। निराशा से घिरा मनुष्य जीवन के रहस्यों को खोज नहीं पाता, लेकिन इनसे मुँह मोड़कर आत्मघात करना उचित नहीं। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य ही है जीवन के रहस्य से पर्दा उठाना, फिर भी वह अंतिम लक्ष्य नहीं है। मैं क्या हूँ, यह रहस्य समझना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। स्वयं का अस्तित्व जीवन के कारण तत्व से आरंभ होना चाहिए, लेकिन यह खोज सांसारिक है। इसके पीछे आत्मा को धारण करने का रहस्य प्राकृतिक विज्ञान से परे है। पराशक्ति का प्रभाव जीवन में स्पंदित है जो अज्ञात नहीं कहा जा सकता। मुझे क्या करना है, यह अगला कदम है।



भक्ति का रास्ता प्रेम की गली से ही गुजरता है। बाबा साँई ने उस प्रेम की गली तक पहुंचने के लिये श्रद्दा और सबूरी के दो पंख हर मानव के लिये उपलब्ध कराऐ हैं, जिसके सहारे हर भक्त बाबा साँई की शिरडी नामक प्रेम की नगरी तक पँहुच सकता है।



कोशिशों के बगैर

कोशिशों के बगैर




जीवन में कुछ चीजें हम प्रयास करके प्राप्त करते हैं और कुछ चीजें बगैर कोशिश के ही मिल जाती हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम जो खोजने निकलते हैं, उसके बदले कोई दूसरी वस्तु मिल जाती है जो हमारे बहुत काम की होती है। लेकिन इसका कोई नियम नहीं होता। यह कोई जरूरी नहीं कि हमारी हर कोशिश के बदले कुछ न कुछ अतिरिक्त हासिल हो ही जाए। अतिरिक्त की कौन कहे, कई बार कठिन प्रयासों के बावजूद कुछ भी हाथ नहीं लगता। फिर भी हम ऐसे संयोग की उम्मीद जरूर रखते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम भाग्य भरोसे जीना चाहते हैं या कर्म से जी चुराते हैं, लेकिन अपने आप कुछ मिल जाए, यह आकांक्षा जरूर मन में रहती है। यही इच्छा हमें आशावादी बनाए रखती है और काफी हद तक आस्थावान भी। यानी हमारे भीतर यह भाव होता है कि हम जो कर रहे हैं उतना ही नहीं, उसके अलावा भी कुछ मिल जाए। यह आशा हमारी कोशिशों की गति को और तेज करती है।



इन सबके बावजूद जिसने भी बाबा साँई का श्रद्दा और सबूरी का सन्देश हमेशा याद रखा समझ लेना उसके लिये कोई भी काम मुश्किल नही रह जाता। यह मेरा मानना है और बखूबी आजमाया हुआ भी।



खुद को बदलो

खुद को बदलो




एक बार विनोबा भावे से मिलने एक महिला आई। वह काफी परेशान लग रही थी। उसने विनोबा जी को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके कहा, 'मेरा जीवन तो नरक हो गया है। मैं बहुत दुखी हूं। जीवन में कोई उम्मीद नहीं नजर आती।' विनोबा जी ने उससे उसके दुख का कारण पूछा तो उसने बताया, 'मेरा पति रोज रात को शराब पीकर घर लौटता है। आते ही अनाप-शनाप बोलने लगता है। मैं उसे इस हालत में देखकर अपने पर काबू नहीं रख पाती। गुस्से में मैं भी उसे बहुत भला-बुरा कहती हूं।'



विनोबा जी ने पहले कुछ सोचा फिर पूछा, 'तुम्हारे भला-बुरा कहने से क्या उसमें कुछ सुधार आया?' उस महिला ने कहा, 'नहीं, मामला और गड़बड़ हो गया है। मैं जब उसे डांटती हूं तो वह और भड़क जाता है और मुझे पीटने लग जाता है। घर में अजीब माहौल बन गया है। बच्चों पर न जाने इसका क्या असर पड़ता होगा। न जाने मेरे पड़ोसी क्या सोचते होंगे। मैं तो उसे समझा-समझाकर थक गई। एक बात और, मैंने उसकी शराब छुड़ाने के लिए व्रत रखना शुरू कर दिया है। मैं रोज उपवास करती हूं। सोचती हूं, शायद इसका कोई सकारात्मक परिणाम निकले।' इस पर विनोबा जी ने पूछा, 'उपवास करने से तुम्हारे क्रोध में कोई फर्क आया या पति को शराब पीकर आया देख तुम्हें अब भी उसी तरह गुस्सा आता है?' महिला ने कहा, 'उसके शराब पीने पर या उसे उस हालत में देख कर मुझे अब भी गुस्सा आता है। मेरे व्रत रखने से अब तक तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा। '



तब विनोबा जी ने कहा, 'अगर हालात बदलने हों तो पहले तुम्हें अपने आप को बदलना होगा। गुस्सा करके तुमने देख लिया। उससे कुछ हासिल न हो सका। अब व्रत कर रही हो, लेकिन उसका भी असर नहीं हो रहा है। इसका कारण है कि तुमने अपने को अंदर से नहीं बदला। तुम्हें अपने मन को बदलाव के लिए तैयार करना होगा और यह दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव है। व्रत रख लेने भर से बदलाव नहीं आते। दूसरों में बदलाव लाने के लिए पहले तुम्हें खुद को बदलना होगा।'



खुश रहने के आ़ठ तरीके

खुश रहने के आ़ठ तरीके




खुश रहना कौन नहीं चाहता! जो नहीं चाहता वह सामान्य नहीं है। लेकिन खुशी की परिभाषा सबके लिए एकदम अलग है। खुशी वस्तुत: ऐसी चीज है जो आपकी सोच पर निर्भर करती है। हो सकता है कि जितनी खुशी आप नौ हजार रुपया प्रति माह कमाकर पाते थे, वह नब्बे हजार प्रति माह कमा कर नहीं पा सकें। यदि खुशियां खोई हुई सी लगने लगें तो ईमानदारी से आत्म विश्लेषण करके देखें। आप जान जाएंगे कि कहां क्या गलत है। साथ ही छोटी-मोटी खुशियां तुरंत हासिल करने के लिए ये तरीके भी अपनाएं-



1. जीवन तभी बदल जाता है जब आप बदलते हैं। न हो तो करके देखें।

2. मन व मस्तिष्क सबसे बड़ी संपत्ति है, इसे मान लेंगे तो खुश रहेंगे आप।

3. किसी की भी आत्मछवि जो उसने खुद बनाई होती है उसके खुश रहने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। अपनी छवि ऐसी बनाएं जो आपको हताश-निराश न करके खुशियां दे।

4. सम्मान करना व क्षमा करना सीखें व खुश रहें।

5. जैसा सोचेंगे वैसे ही बनेंगे आप। अगर गरीबी के बारे में सोचेंगे तो गरीब रहेंगे और अमीरी के बारे में सोचेंगे तो अमीर रहेंगे।

6. असफलता आती और जाती है यह सोचें और खुश रहने की कोशिश करें।

7. जितने भी आशीर्वाद आपको मिले हैं आज तक, उनकी गिनती करें, उन्हें याद करके खुश रहें।

8. यदि आप पूरे जीवन की खुशी चाहते हैं चाहते हैं तो काम से प्यार करना सीखें।

भक्ति का मार्ग

भक्ति का मार्ग




यह विदित है कि भक्ति वहीं है जहां अहंकार नहीं है। पतन का मार्ग अहंकार से होकर जाता है। भक्ति को समझने के लिए हमें स्वयं को अहंकार से मुक्त करना होगा। जब तक हम रुचियों के भिन्न अपेक्षाएं और अहंकार को समाप्त नहीं करते तब तक हम बाबा साँई से प्रेम नहीं कर सकते और न ही उसकी शरण पाने की उम्मीद करें। अहंकार से मुक्ति पाने के लिए मनीषियों की संगति करनी चाहिए, श्रेष्ठ गुरु की शरण में जाना चाहिए। जिन्होने भगवान के असीम प्रेम का रसपान किया है, उन्होंने ही भक्ति की वास्तविक परिभाषा को समझा है। भक्ति क्रोध, वासना, लालच आदि विसंगतियों से मुक्ति दिलाने का सहज मार्ग है। बाबा को प्रेम करने का अर्थ है उनके हर हिस्से को प्रेम करना, जिसमें सभी जीव शामिल हैं।

आज का चिन्तन 3

बाबा साँई ने हमें शरीर दिया है और इंद्रियां भी। ये सब सक्रियता के लिए ही दी हैं। ध्यान रखने की बात है कि इनसे हम सत्कार्य करते हैं या असत्कार्य? सत्कार्य का फल सुख और असत्कार्य का फल दु:ख है। हम असत्कार्य करके सुख पाना चाहते हैं तो वह मृग-मरीचिका ही होगी। यदि हम संसार की गतिविधियों को देखें तो यही पाएंगे कि सब लोग सुख की ही कामना से नाना प्रकार के कार्यो में लगे रहते हैं। कठोर परिश्रम के पश्चात् थोड़ा सा सांसारिक सुख मिलता है, पर अंत में दु:ख ही हाथ लगता है। सुख तो उसी कर्म से मिल सकता है जो दूसरों को सुखी करने के लिए किया जाता है, परंतु नासमझी के कारण हम अपने स्वयं के सुख के लिए दूसरों के दु:ख की परवाह नहीं करते इसीलिए कालांतर में हमें वह सुख प्राप्त नहीं होता जो हम प्राप्त करना चाहते हैं। क्रिया दो प्रकार की होती है: एक आंतरिक और दूसरी बाह्य।




आंतरिक क्रिया मन, बुद्धि एवं भावना से होती है। हम जितना ही अपने भीतर जाते हैं, अपनी अंदरूनी दुनिया में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख और शांति मिलती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे हृदय में बाबा साँई विराजमान हैं। वे ही शाश्वत आनंद के परम एवं एकमात्र स्त्रोत हैं। हम अपने अंदर स्थित बाबा साँई से जितनी अधिक निकटता बना पाते हैं, हमारा आनंद भी उतना ही अधिक घनीभूत होता जाता है। एक बार उस आनंद का स्वाद मिल जाए तो फिर और सब बाहरी सुख एकदम फीके पड़ जाते हैं। उसी की चाह सबको है पर सब कोई उस स्त्रोत की ओर उन्मुख नहीं होता। हम चाहें तो अपनी बाहरी क्रियाओं को भी सुख का साधन बना सकते हैं। इसके लिए यह विशेष विचार जोड़ना आवश्यक है कि हम जो क्रियाएं कर रहे हैं वे बाबा की ही इच्छा की पूर्ति के लिए हैं। ऐसी भावना होगी तो हमसे सत्कार्य ही होंगे। जो क्रियाशील है वही जीवित है। जो निष्कि्रय है उसका जीवन भार-स्वरूप है। न उसकी अपने लिए ही कोई उपलब्धि है और न दूसरों के लिए ही। जीवन पाकर जिस समाज ने जीवन में निरंतर सहयोग प्रदान किया है उसके लिए उसका ऋण चुकाने के लिए प्रत्युत्तर में लाभकारी क्रियाशीलता का योगदान करना मानवता है। वस्तुत: मानवता की महानता सक्रियता से ही संभव है।