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Wednesday, March 23, 2011

आत्मा का परमात्मा से अलौकिक संबंध

समस्त जगत् में जितने भी प्राणी हैं सबका एक दूसरे से कोई संबंध है। बिना संबंध के हम इस जगत् में खुशहाल जीवन नहीं व्यतीत कर सकते। संबंधों के तार मनुष्य को शक्ति प्रदान करते हैं। लौकिक-अलौकिक वैभव, सुख, शांति, गुणों और शक्तियों का आदान-प्रदान भी सहज होता है। आज तक हम पुराणों, धर्म ग्रंथों का अध्ययन इसलिए करते हैं कि वे हमारे पूर्वजों ने रचे हैं। उनके द्वारा हम सबके कल्याणार्थ लिखे ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। उनसे हमारे संबंध दिव्य और अलौकिक हैं इसलिए हम उनकी श्रेष्ठ क्रियाकलापों का अनुसरण करते हैं। उनको जीवन में उतारने की कोशिश करते है। लौकिक और अलौकिक का भी एक दूसरे से गहरा संबंध है। आत्मा अलौकिक है और शरीर लौकिक है। समस्त जगत लौकिक और अलौकिक के गहरे संबंध से जुडा है। इसके आधार पर यह भूमंडल चल रहा है। मनुष्यों का देवताओं से भी संबंध है क्योंकि वे दैवी गुण वाले हैं, हमारे आराध्य हैं। उनसे हमें शक्ति, वैभव और शांति की प्राप्ति होती है। इसी तरह से आत्मा का परमात्मा से अलौकिक संबंध है। संसार में परमपिता परमात्मा ही एक ऐसा है जो मनुष्य के साथ हर पल संबंध निभाने के लिए तैयार रहता है। परमात्मा संसार का रचयिता है और निराकार है, उसका भौतिक शरीर नहीं है। त्वमेवमाता चपिता त्वमेव,त्वमेवबंधुश्चसखा त्वमेव।त्वमेवविद्या द्रविणंत्वमेव,त्वमेवसर्व मम देवदेव।।परमात्मा के लिए यह क्यों कहा गया है, इसके बारे में संसार के प्रत्येक प्राणी को विचार करना चाहिए। यह जाहिर है कि संसार में जो भी रिश्ते हैं वे सब विनाशी हैं और भौतिक संबंध होने के कारण मनुष्य का लगाव भौतिकता के स्तर से ही होता है। इसलिए जब यह पांच तत्वों से बना शरीर अपने समयाकालके अनुसार अपने वास्तविक रूप में परिवर्तित होता है तो मनुष्य को बिछडने का दु:ख होता है क्योंकि आत्मा इस पंचतत्व निर्मित भौतिक शरीर को छोड दूसरे शरीर में धारण कर लेती है। परमात्मा का कोई शरीर नहीं है। परमात्मा निर्गुण और निराकार है। इसके बावजूद वह विभिन्न प्रकार के कर्म करता है। परमात्मा को जिस रूप में जो याद करता है वह उसको उसी रूप में उसकी मनोकामना पूर्ण करता है। संसार में सभी संबंधों से सर्वोच्च परमात्मा से संबंध है। आप मायाजाल के संबंधों से ऊपर उठकर परमात्मा से संबंधों का संपूर्ण सुख लीजिए। आपको सर्वशक्तियोंऔर सर्व सुखोंका अधिकारी बनना है तो परमात्मा से पिता-पुत्र के संबंध का अनुभव कीजिए वह आपका सभी बोझ अपने सिर पर ले लेगा और आपको माता-पिता का सच्चा एवं संपूर्ण सुख प्रदान करेगा। इसलिए परमात्मा के लिए सभी जनमानस के मुखारविंदसे यही निकलता है कि तुम मात-पिता हम बालक तेरे, तेरे कृपा से सुख घनेरे।भौतिक शरीर में आने से पहले और भौतिक शरीर त्यागने के बाद हमारा माता-पिता परमात्मा ही होता है। जब हम भौतिक शरीर में आते हैं तो उसको भूलने के कारण हमें अनेक प्रकार के दु:ख और कठिनाइयों का सामना करना पडता है। आप अपने तीसरे नेत्र को खोलिए और परमात्मा के साथ अपना अलौकिक संबंध जोडिए।यही आपकी नैया के खेवनहार और पालनहारहैं। इस संसार सागर की लहरों में कोई स्थूल और भौतिक सहारा आपका साथ नहीं देगा। इसलिए भौतिक वस्तुओं और सुखोंसे दिली संबंध रख अपने को उलझाए रखना बेमानी होगी। फिर जब संसार के प्राकृतिक और दैवी हालात बदलेंगे तो दु:ख के सिवा आपको कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि वे सब विनाशी है जिन्हें आप इन स्थूल आंखों से देख रहे हैं। इस भौतिक जगत में रहते भी अंदर की चेतन सत्ता को पहचान सर्व सुखोंएवं सर्व गुणों के सागर परमपिता परमात्मा से अपने सर्व संबंध जोडिएऔर जब भी आपको किसी भी संबंध की आवश्यकता महसूस हो उसे निभाने के लिए कहिए वह संबंधों को सुखोंऔर रसों से भरपूर कर देगा। वह पिताओं का भी पिता, पतियोंका भी पति और देवों का भी देव है। इसलिए उसे अपना बनाइये। जब संसार सागर में दु:ख की लहरें आएंगी तो भी आप अतिंद्रियसुखोंके झूलों में होंगे। दु:ख और अशांति से आप कोसों दूर होंगे। आपको देखकर दूसरे भी इस अतिंद्रियसुख का अनुभव करेंगे। परमकल्याणकारीपरमपिता परमात्मा शिव भोलेनाथसे अपने सर्व संबंधों का रस लीजिए फिर आप इस दु:ख की दुनिया में भी सुख का अनुभव करेंगे। यही परमात्मा का संदेश है।




ब्रह्माकुमारकोमल







गीता में परमात्मा प्रा‍प्ति के संदेश

मनुष्य को ऐसे चिंतन और ऐसे विचार से अपने को दूर रखना चाहिए, जिससे उसकी अपनी आस्था में भटकाव हो जाए। मनुष्य इस दुनिया में उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आया है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रह जाती।




अव्यय परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के भीतर कौन-कौन से गुण होने चाहिए उसी को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता संदेश के माध्यम से मानव मात्र के लिए दे दिया है। उस अव्यय पद को ज्ञानी व्यक्ति प्राप्त करता है। जो मूढ़ व्यक्ति होता है, वह संसार में भटक जाता है। और उसी भटके हुए मार्ग को सत्य मान लेता है।



भटकन की यही तो कठिनाई है। वस्तुतः आदमी पहले भटकन में, फिर अटकन में, उसके बाद लटकन में, फिर फटकन- इन चार वस्तुओं में फँस जाता है। आप विचार कर देखें कि कोई व्यक्ति चिंतन के द्वारा, किसी को प्रभावित करने का प्रयत्न करने लगे तो अपने ग्रंथों के प्रति भी कई बार श्रद्धा का अभाव हो जाता है।



भगवान ने गीता में कहा कि बुद्धिमान मनुष्य को कर्मों में आसक्ति रखने वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात्‌ कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। श्रद्धालुओं में बुद्धि-भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए- लेकिन समाज में बहुत बार ऐसे बुद्धिमान लोग भी आ जाते हैं, जो परंपरा का निरंतर विरोध करते हैं। सनातन से मान्य परंपराओं के ऊपर, अपनी बुद्धि से प्रहार करते हैं। उनमें कुछ श्रेष्ठ हो, उसे अवश्य लेना चाहिए, किंतु अपनी आस्था में कहीं भटकाव हो जाए- ऐसे चिंतन, ऐसे स्वाध्याय, ऐसे विचार से अपने को दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।





NDमनुष्य संसार में आया- अव्यय पद अर्थात्‌ उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए-जिसे प्राप्त कर लेने के बाद, फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती। जीवन का सबसे बड़ा लाभ यही है। इसे प्राप्त कर मनुष्य, जीवन के बड़े से बड़े संकट में भी विचलित नहीं होता।



हम संसार में रहते हैं - बड़े व्यवस्थित, लेकिन छोटी-मोटी घटनाएँ विचलित कर देती हैं। भगवतगीता का संदेश- मानव के जीवन में से, विचलन का अभाव कराने का संदेश है। वह अविचल भाव से, जिसे गीता ने स्थितप्रज्ञ कहा है- संसार की अनुकूलता में, प्रतिकूलता में, प्रिय-अप्रिय में, संयोग में, वियोग में, मान-अपमान में- अपने जीवन को चलाने का प्रयत्न करें, यह श्रीमदभगवतगीता का दर्शन है। उस अव्यय पद को प्राप्त करने के लिए, मनुष्य को कुछ छोड़ना पड़ेगा। बिना कुछ छोड़े प्राप्त करना मुश्किल है।



किसी व्यक्ति के मन में इच्छा हो कि मैं छत पर, अगासी पर जाऊँ, तो उसे किसी न किसी सीढ़ी का प्रयोग करना पड़ता है। जब वह सोपानों पर चलता है, अगासी उसने देखी नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती लेकिन सीढ़ियाँ दिख रही हैं।



किसी व्यक्ति ने कहा-'छत पर वैदूर्य मणि है। बहुत चमक रही है। वहाँ पहुँचने के बाद बहुत कुछ प्राप्त होगा, जो कभी देखा नहीं होगा, सोचा नहीं होगा। लेकिन उस उच्च शिखर पर ले जाने वाली सीढ़ियों में से प्रथम सीढ़ी चाँदी से मढ़ी हुई थी। जब वह चढ़ने लगा, तो विचार करने लगा कि ऊपर किसने देखा है, यहाँ चाँदी तो लगी है, उखाड़कर ले जा सकते हैं। वह कुछ देर तक बैठा रहा कि यहाँ कोई न हो, तो इसमें से ले जा सकते हैं।



दूसरे दिन, दूसरा यात्री आया। वह दूसरे सोपान पर चढ़ा, तो देखा कि स्वर्ण लगा हुआ है। उस पर उसका आकर्षण जग गया। प्रथम यात्री पहले, थोड़े रजत के आकर्षण में आकर्षित होकर लौट गया। दर्शन करना था वैदूर्य मणि का पहले भटका, फिर अटका, इसके बाद लग गया एक झटका और घूमता ही रहा भटकाव में। कुछ हाथ लगा नहीं। जीवन भ्रम में ही चला गया।



यही तो मनुष्य की कठिनाई है कि जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ भ्रम हो जाता है और जहाँ भ्रम होना चाहिए, वहाँ श्रद्धा हो जाती है। जगत में निवास करते-करते जगत के मिथ्यात्व का बोध होना चाहिए। क्योंकि अनेक ऐसे लोग हो गए, जिन्हें जगत के पदार्थों को छोड़ते देखा है। इस जगत में से उनका प्रस्थान भी देखा है।

परमात्मा को जाने वही है शिक्षित कहलाने योग्य

मैं जानौं पढ़ना भला, पढ़ने ते भल लोग


रामनाम सों प्रीति कर, भावे निन्दो लोग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं पहले पढ़ना लिखना अच्छा समझता था पर अब तो ऐसा लगता है कि पढ़ने लिखने से तो योग साधना, ध्यान और भक्ति ही करना अच्छा है। रामनाम से प्रेम करना ही ठीक है चाहे लोग उसकी कितनी भी निंदा करें।

नहिं कागद नहिं लेखनी, निहअच्छर है सोय

बांचहि पुस्तक छोडि़के, पंडित कहिये सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि न तो उसके पास कागज है न कलम है और वह एकदम निरक्षर है पर अगर उसने भगवान से प्रेम कर लिया तो वह ज्ञानी हो गया। उसने पुस्तक पढ़ना छोड़ दिया हो पर अगर वह ध्यान करता है तो उसे ही विद्वान मान लेना चाहिए।



पढ़ी गुनी पाठक भये, कीर्ति भई संसार

वस्तु की तो समुझ नहिं, ज्यूं खर चंदन भार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ लिखकर शिक्षित हो गये संसार में कीर्ति फैल गयी परंतु जब तक परमात्मा की समझ नहीं आयी तब सब व्यर्थ हैं। उसे तो यू समझना चाहिए जैसे गधे के ऊपर चंदन का तिलक लगा हो।





परमात्मा के करोड़ों नाम

कोटि नाम संसार में तातें मुक्ति न होई



आदि नाम जो गुप्त जपे बुझे बिरला कोई





कबीर जी कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम हैं परन्तु

उनको जपने से मुक्ति नहीं हो सकती
जानना है तो उस नाम को

जानो जो आदि काल से चला आ रहा है, जो अत्यंत गोपनीय है

एवं मनुष्य के अन्तर में चल रहा है
वह नाम कण-कण में विद्यमान है


परन्तु उसी नाम का अर्थात उस ज्ञान का ही मनुष्य को बोध नहीं


आज मनुष्य ने स्वयं द्वारा निर्मित भक्ति करने के अनेकों तथा मनमाने

मार्ग बना लिए हैं
लेकिन धार्मिक ग्रंथों में संत महापुरषों, ऋषि एवं गुरुओं

द्वारा दिए गए सन्देश से यह रहस्य स्पष्ट होता है कि वह ज्ञान कभी भी बदलता नहीं


Perfect Master

घर महि घरु देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु ॥


(SGGS,page 1291)

He is the Perfect Master who is capable of revealing the sacred of God within the abode of heart.



Nowadays,spiritual seekers are rushing towards the hermitages of one or the other Guru.But they do not know what they should enquire about before taking their shelter.If you ask such desciples whether their Guru has revealed Divine Light to them,they will be suprised and perplexed - "How is it possible? How can one see Divine Light just by the grace of the Guru ? For this,we need to toil hard and do unceasing efforts for years."



But,this argument of their is not strong.It would be as if a blind person says that with his ceaseless efforts,one day,he would be able to see things around him.What he really needs is the treatment by an experienced surgeon.Only an expert surgeon can operate on his damaged eyes and impart sight to him.There and then,insantly,the patient is able to see things around him,not years after the operation.Similarly,our religious texts inform that when the Guru places his holy palm on the seeker's head,He imparts to him the Divine Eye and makes him see the vision of God instantly - yes,yes,there and then - at the time of initiation ! Without any effort by the seekers! Moreover,it is not temporary faculty that the Perfect Master grants! It is the Everlasting One! The Indestructible One! The permanent cure of ignorance!

उन्नति का मार्ग

एक दिन एक किसान का गधा कुएँ में गिर गया ।वह गधा घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं। अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि गधा काफी बूढा हो चूका था,अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था;और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है ,वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा । और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एस सीढी ऊपर चढ़ आता । जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएँ के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया।ध्यान रखो ,तुम्हारे जीवन में भी तुम पर बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जायेगी ,बहुत तरह कि गंदगी तुम पर गिरेगी। जैसे कि ,तुम्हे आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही तुम्हारी आलोचना करेगा ,कोई तुम्हारी सफलता से ईर्ष्या के कारण तुम्हे बेकार में ही भला बुरा कहेगा । कोई तुमसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो तुम्हारे आदर्शों के विरुद्ध होंगे। ऐसे में तुम्हे हतोत्साहित होकर कुएँ में ही नहीं पड़ेरहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर,उसे सीढ़ी बनाकर,बिना अपने आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है।अतः याद रखो !जीवन में सदा आगे बढ़ने के लिए१)नकारात्मक विचारों को उनके विपरीत सकारात्मक विचारों से विस्थापित करते रहो।२)आलोचनाओं से विचलित न हो बल्कि उन्हें उपयोग में लाकर अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो।