बाबा साँई ने हमें शरीर दिया है और इंद्रियां भी। ये सब सक्रियता के लिए ही दी हैं। ध्यान रखने की बात है कि इनसे हम सत्कार्य करते हैं या असत्कार्य? सत्कार्य का फल सुख और असत्कार्य का फल दु:ख है। हम असत्कार्य करके सुख पाना चाहते हैं तो वह मृग-मरीचिका ही होगी। यदि हम संसार की गतिविधियों को देखें तो यही पाएंगे कि सब लोग सुख की ही कामना से नाना प्रकार के कार्यो में लगे रहते हैं। कठोर परिश्रम के पश्चात् थोड़ा सा सांसारिक सुख मिलता है, पर अंत में दु:ख ही हाथ लगता है। सुख तो उसी कर्म से मिल सकता है जो दूसरों को सुखी करने के लिए किया जाता है, परंतु नासमझी के कारण हम अपने स्वयं के सुख के लिए दूसरों के दु:ख की परवाह नहीं करते इसीलिए कालांतर में हमें वह सुख प्राप्त नहीं होता जो हम प्राप्त करना चाहते हैं। क्रिया दो प्रकार की होती है: एक आंतरिक और दूसरी बाह्य।
आंतरिक क्रिया मन, बुद्धि एवं भावना से होती है। हम जितना ही अपने भीतर जाते हैं, अपनी अंदरूनी दुनिया में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख और शांति मिलती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे हृदय में बाबा साँई विराजमान हैं। वे ही शाश्वत आनंद के परम एवं एकमात्र स्त्रोत हैं। हम अपने अंदर स्थित बाबा साँई से जितनी अधिक निकटता बना पाते हैं, हमारा आनंद भी उतना ही अधिक घनीभूत होता जाता है। एक बार उस आनंद का स्वाद मिल जाए तो फिर और सब बाहरी सुख एकदम फीके पड़ जाते हैं। उसी की चाह सबको है पर सब कोई उस स्त्रोत की ओर उन्मुख नहीं होता। हम चाहें तो अपनी बाहरी क्रियाओं को भी सुख का साधन बना सकते हैं। इसके लिए यह विशेष विचार जोड़ना आवश्यक है कि हम जो क्रियाएं कर रहे हैं वे बाबा की ही इच्छा की पूर्ति के लिए हैं। ऐसी भावना होगी तो हमसे सत्कार्य ही होंगे। जो क्रियाशील है वही जीवित है। जो निष्कि्रय है उसका जीवन भार-स्वरूप है। न उसकी अपने लिए ही कोई उपलब्धि है और न दूसरों के लिए ही। जीवन पाकर जिस समाज ने जीवन में निरंतर सहयोग प्रदान किया है उसके लिए उसका ऋण चुकाने के लिए प्रत्युत्तर में लाभकारी क्रियाशीलता का योगदान करना मानवता है। वस्तुत: मानवता की महानता सक्रियता से ही संभव है।
आंतरिक क्रिया मन, बुद्धि एवं भावना से होती है। हम जितना ही अपने भीतर जाते हैं, अपनी अंदरूनी दुनिया में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख और शांति मिलती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे हृदय में बाबा साँई विराजमान हैं। वे ही शाश्वत आनंद के परम एवं एकमात्र स्त्रोत हैं। हम अपने अंदर स्थित बाबा साँई से जितनी अधिक निकटता बना पाते हैं, हमारा आनंद भी उतना ही अधिक घनीभूत होता जाता है। एक बार उस आनंद का स्वाद मिल जाए तो फिर और सब बाहरी सुख एकदम फीके पड़ जाते हैं। उसी की चाह सबको है पर सब कोई उस स्त्रोत की ओर उन्मुख नहीं होता। हम चाहें तो अपनी बाहरी क्रियाओं को भी सुख का साधन बना सकते हैं। इसके लिए यह विशेष विचार जोड़ना आवश्यक है कि हम जो क्रियाएं कर रहे हैं वे बाबा की ही इच्छा की पूर्ति के लिए हैं। ऐसी भावना होगी तो हमसे सत्कार्य ही होंगे। जो क्रियाशील है वही जीवित है। जो निष्कि्रय है उसका जीवन भार-स्वरूप है। न उसकी अपने लिए ही कोई उपलब्धि है और न दूसरों के लिए ही। जीवन पाकर जिस समाज ने जीवन में निरंतर सहयोग प्रदान किया है उसके लिए उसका ऋण चुकाने के लिए प्रत्युत्तर में लाभकारी क्रियाशीलता का योगदान करना मानवता है। वस्तुत: मानवता की महानता सक्रियता से ही संभव है।
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