सत्य का धारण
ब्रह्म अनंत-अगोचर है। जीव प्राय: परमात्मा को ग्रहण नहीं कर पाता, लेकिन जीवन में जीवन-दाता को पाना होता है। सच्चाई यह है कि मनुष्य अपने जीवन-वन में भटकता रहता है, उसे भगवान को पाने की सुध नहीं रहती। मानव ने जीवन को रहस्यमय बना दिया है। उसकी छटपटाहट, उसकी व्यग्रता, उसका झुकाव सदैव संसार की वस्तुओं में है। जीवन का एक-एक पल शरीर के लिए जी रहा है। ईश्वर की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, स्वार्थो की ओर ध्यान अवश्य जाता है। मनुष्य प्रभु से सांसारिक चीजें मांगता है। उसका ध्यान प्रभु में न होकर संसार में लगा है। जीवन में वह क्या करता है, क्या चाहता है-उसे स्वयं स्पष्ट नहीं। जीवन के उद्देश्य से लेकर लक्ष्य तक कुछ भी ज्ञात नहीं। बस रहस्य का पिटारा है जीवन। मनुष्य ने यही हाल बनाया है अपने जीवन का। रहस्यमय जीवन का अभ्यस्त मानव कर्म को सद्कर्म मानता है।
वस्तुत: सद्कर्म ही धर्म है। कर्म-अकर्म का बंधन जीवन प्रवाह है। इस प्रवाह की दशा और दिशा दोनों निश्चित नहीं है। प्रकृति एक समान व्यवहार करती है, किंतु मनुष्य की प्रकृति ऐसा नहीं करती। मनुष्य बाधक है प्रकृति के संचालन में। हर मनुष्य धर्म, कर्म, प्रेम, एकता और शांति के लिए समान प्रकृति से विमुख क्यों है? क्यों जीवन को रहस्य के अंधकार में जी रहा है? इस रहस्य को हटा कर मानवता के लिए तत्पर होना चाहिए। अंधकार को मिटाकर परमात्मा को ग्राह्य बनाया जाए। असंभव से संभव की ओर चलें, संभव से अंसभव की ओर नहीं। बियावान जंगल की तरह जीवन के भेदों को रहस्यमयी अंधकार में छोड़ना सर्वथा अनुचित होगा। न ही जीवन के रहस्य से डरना या आशंकित रहना उचित है। इसका भेदपूर्ण रहस्य अत्यंत सरल है। मानव को इस रहस्य से पर्दा उठाने में कोई कठिनाई नहीं है। भय व संशय त्यागकर सत्य अपनाना और असत्य त्यागना चाहिए। यह कार्य साधारण है। सत्य से परे सभी कार्य सामान्य नहीं रह जाते। सत्य धारण करने का अर्थ है धर्म को धारण करना। सत्य के साथ जीवन अंधकारमय नहीं हो सकता इसलिए रहस्यमय भी नहीं रहता। असत्य सदैव रहस्य को गहराता है। सत्य रहस्यमय जीवन के स्थान पर उसे खुली किताब की तरह बनाने में सक्षम है। यह परमात्मा को ग्रहण करने का मार्ग भी है।
ब्रह्म अनंत-अगोचर है। जीव प्राय: परमात्मा को ग्रहण नहीं कर पाता, लेकिन जीवन में जीवन-दाता को पाना होता है। सच्चाई यह है कि मनुष्य अपने जीवन-वन में भटकता रहता है, उसे भगवान को पाने की सुध नहीं रहती। मानव ने जीवन को रहस्यमय बना दिया है। उसकी छटपटाहट, उसकी व्यग्रता, उसका झुकाव सदैव संसार की वस्तुओं में है। जीवन का एक-एक पल शरीर के लिए जी रहा है। ईश्वर की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, स्वार्थो की ओर ध्यान अवश्य जाता है। मनुष्य प्रभु से सांसारिक चीजें मांगता है। उसका ध्यान प्रभु में न होकर संसार में लगा है। जीवन में वह क्या करता है, क्या चाहता है-उसे स्वयं स्पष्ट नहीं। जीवन के उद्देश्य से लेकर लक्ष्य तक कुछ भी ज्ञात नहीं। बस रहस्य का पिटारा है जीवन। मनुष्य ने यही हाल बनाया है अपने जीवन का। रहस्यमय जीवन का अभ्यस्त मानव कर्म को सद्कर्म मानता है।
वस्तुत: सद्कर्म ही धर्म है। कर्म-अकर्म का बंधन जीवन प्रवाह है। इस प्रवाह की दशा और दिशा दोनों निश्चित नहीं है। प्रकृति एक समान व्यवहार करती है, किंतु मनुष्य की प्रकृति ऐसा नहीं करती। मनुष्य बाधक है प्रकृति के संचालन में। हर मनुष्य धर्म, कर्म, प्रेम, एकता और शांति के लिए समान प्रकृति से विमुख क्यों है? क्यों जीवन को रहस्य के अंधकार में जी रहा है? इस रहस्य को हटा कर मानवता के लिए तत्पर होना चाहिए। अंधकार को मिटाकर परमात्मा को ग्राह्य बनाया जाए। असंभव से संभव की ओर चलें, संभव से अंसभव की ओर नहीं। बियावान जंगल की तरह जीवन के भेदों को रहस्यमयी अंधकार में छोड़ना सर्वथा अनुचित होगा। न ही जीवन के रहस्य से डरना या आशंकित रहना उचित है। इसका भेदपूर्ण रहस्य अत्यंत सरल है। मानव को इस रहस्य से पर्दा उठाने में कोई कठिनाई नहीं है। भय व संशय त्यागकर सत्य अपनाना और असत्य त्यागना चाहिए। यह कार्य साधारण है। सत्य से परे सभी कार्य सामान्य नहीं रह जाते। सत्य धारण करने का अर्थ है धर्म को धारण करना। सत्य के साथ जीवन अंधकारमय नहीं हो सकता इसलिए रहस्यमय भी नहीं रहता। असत्य सदैव रहस्य को गहराता है। सत्य रहस्यमय जीवन के स्थान पर उसे खुली किताब की तरह बनाने में सक्षम है। यह परमात्मा को ग्रहण करने का मार्ग भी है।
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