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Monday, March 14, 2011

संतोष

मनुष्य को संतोष से जो सुख मिलता है वह सबसे उत्तम है और उसी सुख को मोक्ष सुख कहते हैं। इसीलिए जीवन में संतोष को परम सुख का साधन कहा जाता है।




मनुष्य के जीवन में संतोष परम सुख का साधन है प्रत्येक आत्म शुद्धि के इच्छार्थी को संतोषी होना चाहिए क्योंकि संसार में जो काम सुख-कामना की पूर्ति का सुख है और जो भी दिव्य स्वर्गीय सुख है वे सुख तृष्णा के नाश से प्राप्त होने वाले सुख की 16वीं कला के समान नहीं हो सकते। धन ऐश्वर्य आदि भोग सामग्री की स्वलप्ता में ईश्वर संसार प्रारब्ध पर किसी प्रकार से इसी गिला व रोष प्रकट न करना और अधिकता में हर्ष न करना संतोष सुख कहलाता है।



वाचालता का त्याग, निंदा व कटु वचन सुनने पर, हानि होने पर, क्रोध आदि से आवेश में न आकर, दुर्वचनों का त्याग, स्वल्प भाषण, विवाद त्याग और यथा शक्ति मौनधरणा संतोष कहलाता है। शरीर से निंदित व बुरे कर्म न कराना ही श्रेष्ठ है। संतोष रूपी अमृत से जो मनुष्य तृप्त हो जाता है, उसे महापुरुषों के समान सुख मिलता है। धन ऐश्वर्य के लोभ करने वाले व इधर-उधर भागने वाले मनुष्य को कभी भी संतोष नहीं मिलता। ऐसे व्यक्ति के मन में सदैव बेचैनी रहती है तथा वह लोभ,मोह आदि व्यसनों में पड़कर दुखी रहता है। साथ ही जो मानव बुरे कर्म व निंदनीय कार्य करता है वह भी भय के कारण दुख का भागी बनता है। जबकि मन में संतोष होने पर मनुष्य व्यर्थ की लालसा में नहीं पड़ता है। जिससे वह व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो जाता है। संतोष धन को इसीलिए सबसे बड़ा धन कहा गया है।

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