उत्थान व पतन दोनों मनुष्य के हाथ में
गीता के अनुसार जीव अपनी प्रकृति या स्वभाव, गुणों के कारण अच्छा या बुरा कुछ न कुछ कर्म करता ही रहता है। यह प्रक्रिया जागने से लेकर सोने तक जारी रहती है। यहां तक कि सोना भी एक क्रिया ही है, क्योंकि मनुष्य कहता है कि मैं सोया या मैं सोने जा रहा हूं। शास्त्रों एवं अनुभव के आधार पर यह कहा जाता है कि मनुष्य का स्वभाव और उसके वर्तमान क्रियाकलाप उसके द्वारा विभिन्न जन्मों में किए गए अच्छे या बुरे कर्मो से निर्धारित होते हैं।
सभी जीव विभिन्न कर्मो में पूरी तरह व्यस्त हैं। कर्म करना उचित भी है। कर्म से ही उत्कर्ष है इसलिए संसार के सभी ग्रंथों में पुरुषार्थी की प्रशंसा और अकर्मण्य की निंदा की गई है। परंतु कर्म करने का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही होना चाहिए। किंतु मनुष्य आज मशीन की तरह केवल अर्थ के ही कर्मो में जुटा हुआ है। वह येन-केन प्रकारेण धन कमाने में व्यस्त है। अत: इन कर्मो से जन्य क्रोध, लोभ, तनाव, ईष्र्या, चिंता, पीड़ा एवं दाह से ग्रस्त है। वह उन्नति अवनति, हानि-लाभ, मान-अपमान सब को भूल चुका है। वह जागा हुआ तो है पर वह सोए हुए के समान लगता है।
मानव जीवन इतना दुख, अपमान आदि सहन करने के लिए नहीं मिला है। यह तो उस परमात्मा से अपने को जोड़ देने, की सृष्टि का आनंद लेने के लिए है। परंतु यह संभव तभी होगा जब हम इस मोह निशा से जागकर, श्रद्धा-सबूरी, भक्ति, ध्यान के द्वारा बाबा साँई की श्रद्धा भक्ति ध्यान का मार्ग अपनाएं। उत्कर्ष और बर्बादी दोनों ही मनुष्य के अपने ही हाथ में हैं। संसार की हर वस्तु, हर जीव, हर घटना में सच्चिदानंद सदगुरू साँईनाथ महाराज का अनुभव करें। तभी हमें आनंद प्राप्त होगा।
मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई
गीता के अनुसार जीव अपनी प्रकृति या स्वभाव, गुणों के कारण अच्छा या बुरा कुछ न कुछ कर्म करता ही रहता है। यह प्रक्रिया जागने से लेकर सोने तक जारी रहती है। यहां तक कि सोना भी एक क्रिया ही है, क्योंकि मनुष्य कहता है कि मैं सोया या मैं सोने जा रहा हूं। शास्त्रों एवं अनुभव के आधार पर यह कहा जाता है कि मनुष्य का स्वभाव और उसके वर्तमान क्रियाकलाप उसके द्वारा विभिन्न जन्मों में किए गए अच्छे या बुरे कर्मो से निर्धारित होते हैं।
सभी जीव विभिन्न कर्मो में पूरी तरह व्यस्त हैं। कर्म करना उचित भी है। कर्म से ही उत्कर्ष है इसलिए संसार के सभी ग्रंथों में पुरुषार्थी की प्रशंसा और अकर्मण्य की निंदा की गई है। परंतु कर्म करने का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही होना चाहिए। किंतु मनुष्य आज मशीन की तरह केवल अर्थ के ही कर्मो में जुटा हुआ है। वह येन-केन प्रकारेण धन कमाने में व्यस्त है। अत: इन कर्मो से जन्य क्रोध, लोभ, तनाव, ईष्र्या, चिंता, पीड़ा एवं दाह से ग्रस्त है। वह उन्नति अवनति, हानि-लाभ, मान-अपमान सब को भूल चुका है। वह जागा हुआ तो है पर वह सोए हुए के समान लगता है।
मानव जीवन इतना दुख, अपमान आदि सहन करने के लिए नहीं मिला है। यह तो उस परमात्मा से अपने को जोड़ देने, की सृष्टि का आनंद लेने के लिए है। परंतु यह संभव तभी होगा जब हम इस मोह निशा से जागकर, श्रद्धा-सबूरी, भक्ति, ध्यान के द्वारा बाबा साँई की श्रद्धा भक्ति ध्यान का मार्ग अपनाएं। उत्कर्ष और बर्बादी दोनों ही मनुष्य के अपने ही हाथ में हैं। संसार की हर वस्तु, हर जीव, हर घटना में सच्चिदानंद सदगुरू साँईनाथ महाराज का अनुभव करें। तभी हमें आनंद प्राप्त होगा।
मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई
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